लेखक: उपेन्द्र सिंह राठौड़
आज के समय एक श्रमिक वर्ग ऐसा भी हैं जो शारीरिक के साथ ही मानसिक श्रम भी करता है।
जिसके न जागने का समय निश्चित है और न ही सोने का ।
सबसे बड़े आश्चर्य का विषय तो यह है कि उसे उसके श्रम का मूल्य समय पर मिलेगा भी या नहीं , यह भी निश्चित नहीं है।
और यह श्रमिक वर्ग है , छोटे शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत पत्रकार …।
यह पत्रकार रूपी श्रमिक पढ़ा लिखा है इसलिए शारीरिक श्रम के साथ ही अपनी लेखनी तथा वाणी के माध्यम से अपने कार्य को करता है।
साथ ही साथ समाज में व्याप्त कुरितियों , ज्वलंत समस्याओं , संगठित अपराध , सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार को उजागर करने के साथ ही सांप्रदायिक तनाव , दुर्घटनाओं के स्थल पर तुरंत पहुंचने का चुनौतीपूर्ण कार्य भी करता है।
इसलिए इनका कार्यक्षेत्र भी अत्यंत असुरक्षित होता है।
जिसके कारण प्रतिवर्ष अनेक पत्रकारों को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है।
मारपीट , प्रताड़ना , षड्यंत्र का शिकार होना तो इस वर्ग के लिए आए दिन की घटनाएं हो चली है।
इस वर्ग को सिस्टम के खिलाफ लिखने और बोलने पर द्वेष भावना का शिकार भी होना पड़ता है।
उसके लिए यह वर्षों से पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग भी कर रहा है।
परन्तु इनकी असंगठित आवाज सरकारों तक नहीं पहुंच पा रही है।
दिन रात भागदौड़ भरी जिंदगी में मानसिक , शारिरिक श्रम और श्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाने वाला यह श्रमिक पत्रकार अपने संस्थान की महत्वाकांक्षा के चलते ब्रेकिंग न्यूज के लिए अनेकों बार अपनी जान जोखिम में डालने के लिए भी तैयार रहता है।
कारण यह कि किसी तरह उसकी न्यूज़ लग जाए तो उसे प्रति न्यूज आधारित उसका पारिश्रमिक प्राप्त हो सके और वह अपने घर परिवार व स्वयं की जरुरतों को पूरा कर पाए।
समय समय पर यूं तो राज्य सरकारें पेंशन , चिकित्सा , यात्रा , बीमा , भूखंड इत्यादि को लेकर पत्रकारों के कल्याण की घोषणाएं करती है । परन्तु वह सभी घोषणाएं अधिस्वीकृत पत्रकारों तक ही सीमित हैं।
और अधिस्वीकृत की श्रेणी में मात्र वहीं सम्मिलित हो पाते हैं जिनके बड़े राजनेताओं , उच्च अधिकारियों से अच्छे सम्बन्ध हो। क्योंकि अधिस्वीकरण प्रणाली में इतनी जटिलताएं है कि इस श्रमिक पत्रकार के लिए उनसे पार पाना संभव ही नहीं।
राज्य सरकार यदि अधिस्वीकृत पत्रकार सूची की निष्पक्षता से जांच करें तो पता चलेगा कि जो इस सुविधा का लाभ उठा रहे हैं वह अधिकांश या तो संस्थानों के मालिक हैं या फिर उनके नजदीकी रिश्तेदार , जिनका पत्रकारिता से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है…।
सरकारें इस व्यवस्था से अनभिज्ञ भी नहीं है। परन्तु अपने निजी हित के चलते मौन है।
छोटे शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत यह श्रमिक पत्रकार मात्र विज्ञापन के कमीशन और खबरों पर तय राशि से ही अपना जीवन यापन करने के लिए विवश हैं। असंगठित पत्रकारिता क्षेत्र का यह श्रमिक पत्रकार जो लोकल
कॉरˈसपान्डस , ब्यूरो , स्थानीय संवाददाता , आपरेटर , डिजाइनर फोटोग्राफर आदि नामों से जाना तो जाता है परन्तु अधिकांशतः वह अवैतनिक श्रमिक के रूप में ही कार्य करता है।
केन्द्र और राज्य सरकारों को संस्थानों द्वारा खड़ी की गई इन शोषण भरी व्यवस्थाओं तथा आर्थिक असमानताओं को दूर करने के लिए पहल करने की आवश्यकता है।
लोकतंत्र का अघोषित चौथा स्तंभ , बुद्धिजीवी वर्ग , लोकतंत्र का प्रहरी इत्यादि उपमाओं से लुभाकर रखे जाने वाले इस असंगठित श्रमिक पत्रकार वर्ग को भी संगठित होने की परम आवश्यकता है।
तभी वह अपने मौलिक अधिकारों , सम्मान व सुरक्षा के वातावरण को प्राप्त कर पाएगा।
अन्यथा बाहर से सशक्त दिखाई देने वाला यह वर्ग शोषित ही रह जाएगा।
अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने के लिए प्रेरित करने वाले श्रम दिवस की सभी को हार्दिक बधाई,संगठित रहें और अपने अधिकारों को प्राप्त करें।
(लेखक इंडियन फैडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट् के राष्ट्रिय उपाध्यक्ष व राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष हैं)