लेखक- अजीत कुमार राय
मैं सोच कर सिहर उठता हूँ कि इस भारत देश में औरंगजेब जैसे नृशंस, क्रूर और आततायी शासक का कीर्तन करने वाले लोग भी हो सकते हैं। शक्ति की ऐसी अभ्यर्थना! अभी एक महाकवि हुए हैं बोधिसत्व। वे औरंगजेब के बचाव में उन भारतीय हिन्दू शासकों का धारावाहिक अनावरण कर रहे हैं, जिन्होंने अपने भाई या पिता को कैद करके या हत्या करके सत्ता हासिल की। पहले उदाहरण के रूप में उन्होंने अजातशत्रु को लेकर पोस्ट लिखी है। एक बोधिसत्व दूसरे बोधिसत्व पर प्रहार कर रहा है। सम्राट अशोक सम्राट होने के कारण पूजित नहीं हैं। वे अपने हृदय – परिवर्तन और कलिंग – युद्ध के नरसंहार पर प्रायश्चित्त के बाद अहिंसा धर्म के वैश्विक प्रसार या धर्मचक्र प्रवर्तन के कारण स्तुत्य हैं। कंस यहाँ कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता। एक राजनीतिज्ञ की भांति तिलमिला कर औरंगजेब के बचाव में अजातशत्रु पर प्रहार करने की असफल कोशिश पालिटिकल करेक्टनेस का प्रतिमान है। उसने अपने पिता शाहजहाँ को तो कारागार में डाल दिया था, लेकिन वेदों का फारसी भाषा में अनुवाद करने वाले अपने बड़ेभाई दाराशिकोह की हत्या कर दी थी और हत्या तो उसने लाखों हिन्दुओं की की थी और हजारों मंदिर तोड़वाकर उनके ऊपर मस्जिद बनवाए थे। इतनी असहिष्णुता! लाखों लोगों के जबरन या प्रलोभन देकर धर्म – परिवर्तन कराए थे। आज भी सर्वधर्म समभाव वहीं सम्भव है, जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक हैं। वरना कमलेश्वर का “कितने पाकिस्तान” चरितार्थ होता है। हिन्दुस्तान में ही जाने कितने कैराना, कश्मीर और संभल द्वीप हैं! हां जो सुशिक्षित मुसलमान हैं, वे भरसक तटस्थ या धर्मनिरपेक्ष नागरिक जरूर हैं। मैं सनातन संस्कृति या वेदों की शल्यक्रिया करने वाले प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को चुनौती देता हूँ कि वे जरा इस्लाम की आन्तरिक संरचना की विसंगतियों पर भी प्रकाश डालने की हिम्मत दिखाएं। हमारे समाज में विचलन आता रहा तो कोई न कोई बुद्ध इसी समाज में विद्रोही की भूमिका में संशोधन और सुधार भी करता रहा। कोई न कोई नचिकेता अपने पिता बाजश्रवा के खिलाफ खड़े होकर सत्य का निर्वचन करते हुए मृत्यु का वरण भी करता रहा। कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई निराला और कोई प्रेमचंद कोई गांधी! ये विद्रोही स्वर न होते तो दलितों का उत्थान कैसे होता! हाँ मैं मानता हूँ कि हम आक्रान्ता नहीं रहे, किन्तु अश्वमेध की छाया में सीमा – विस्तार या फिर शासन की केन्द्रीयता के लिए जो नरमेध होता रहा, वह कहाँ तक समीचीन है? किन्तु इसकी आड़ में हम औरंगजेब, नादिरशाह, तैमूर या गजनवी को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। हाँ, स्वतंत्र सन्दर्भ के रूप में अजातशत्रु की सम्पूर्ण मीमांसा होती तो वह लोकतांत्रिक मूल्यों को पुरस्कृत करता। हम अहिंसा के उपासक रहे हैं, लेकिन किसी रावण के अत्याचार के विरुद्ध धनुष – वाण उठाने में संकोच नहीं किया। आठ – आठ हाथों से शक्ति – साधना की। प्राचीन राजा इस दृष्टि से भी श्रेष्ठ थे कि वे युद्धों का नेतृत्व और संचालन खुद करते थे। आज भी यदि सेना के जवान रात में जागना बंद कर दें तो बोधिसत्व का वाग्विलास वाष्पीभूत हो जाएगा। जो प्रच्छन्न रूप से साहित्य की सत्ता का अखण्ड कीर्तन है। हमारे नायक महाराणा प्रताप और शिवाजी हैं, औरंगजेब नहीं। और यह बात प्रेमचंद कहते हैं। इन प्रगतिवादी लेखकों को उनका ‘महाराणा प्रताप ” शीर्षक ओजस्वी निबन्ध पढ़ना चाहिए। हाँ हम मीर, जायसी और रसखान के प्रति आस्थावान हैं।
(लेखक इतिहासभिज्ञ हैं)