लेखक~मुकेश सेठ
गठबंधन बनाने निकले नीतीश बाबू के रास सदस्य अभी तक हैं मोदी सरकार में राज्यसभा के उपसभापति के पद पर,क्या नीतीश कुमार विकल्प की कर रहे पॉलिटिक्स?
काँग्रेस के दो नैन राहुल-प्रियंका पार्टी को क़ामयाबी का रास्ता दिखाने में नही हो पा रहे सफ़ल?
♂÷राजनीति के बारे में कहा जाता है कि इसके खिलाड़ी कब किसके दोस्त और कब किसके दुश्मन बनकर अभिनेताओं के “अभिनय” व मदारी के प्रशिक्षित बंदरो की “गुलाटी” भी पछाड़ दे कुछ कहा नही जा सकता।
वर्तमान में देश की शीर्षस्थ राजनीतिक किरदारों ने वर्ष 2024 के आसन्न लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत नए-नए बोल,नई राजनीतिक शतरंजी चाल व नए-नए चेहरे के साथ गलबहियाँ करते दिख रहे हैं।
कभी कई पारी तक बीजेपी के साथ बिहार के मुख्यमंत्री बनकर सरकार चलाने वाले “सुशासन बाबू”नीतीश कुमार हो या फ़िर बीजेपी दोंनो कुर्सी सुख का आनन्द लेते रहे।
अब जबसे नीतीश बाबू बीजेपी से “गुलाटी”मारकर अपने राजनीतिक शत्रु लालू प्रसाद यादव व उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव जो कभी विरोध में अपने “पोलिटिकल अंकल”नीतीश कुमार को “पलटूराम”का नामकरण करने वाले तेजस्वी यादव के साथ मिलकर अब बिहार में सरकार चला रहे हैं।तो अब वही नीतीश कुमार अब एक बार फ़िर से बीजेपी के लिए मुस्लिम वोटों के खिलाड़ी”इशरत के अब्बू”बन गए हैं तो नीतीश कुमार केंद्र की सत्ता से मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एड़ी चोटी का जोर विपक्षी दलों के दरवाज़े खटखटाकर एकता बनाने में लगे हुए हैं।
उधर यह भी हैरान करने की रणनीति दिखती है नीतीश कुमार की कि जब वह बीजेपी के साथ थे तो उनके खासमखास साथी राज्यसभा सदस्य हरिवंश नारायण सिंह को नीतीश कुमार के कहने पर पीएम मोदी नें राज्यसभा के उपसभापति पद पर आसीन कराया था।अब जब नीतीश कुमार बीजेपी से गठबन्धन तोड़कर एक बार फ़िर से सेक्युलर पार्टियों के साथ है बिहार में राजद के साथ मिलकर सरकार में सीएम है उसके बाद भी अपने मित्र हरिवंश नारायण सिंह को उपसभापति पद से इस्तीफा न दिलाना आश्चर्यचकित करने वाली बात है।
क्या नीतीश कुमार आगे भी लालू प्रसाद यादव व तेजस्वी यादव के नामकरण “पलटूराम”दाव खेलने के विकल्प को खुला रखे हुए हैं या फ़िर उन्होंने पीएम मोदी से उनको हटाने के लिए न कहा हो या हरिवंश नारायण सिंह नें नीतीश कुमार के कहने पर इस्तीफा ही न दिया हो,राजनीति के दावपेंच है खोपड़ी घुमा देती है।
विदित हो कि आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए जहाँ सत्तापक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी फ़िर से सत्ताधीश बनने के लिए “इलेक्शन मोड” में आकर व्यूह रचना रचने में लग गयी है कि जिससे विपक्षियों को पुनः चुनावी समर में पराजित कर सत्ता की कुर्सी हाथ से सरकने न पाए।
वहीँ सबसे बड़े मुख्य विपक्षी दल काँग्रेस में सोनिया गाँधी के द्वारा पार्टी व देश की सक्रिय राजनीतिक से वनवास लेने के चलते काँग्रेस की बात अन्य विपक्षी दल बहुत मज़बूती से नही तवज्जो देने के मूड में हैं।
वजह है कि पूर्व काँग्रेस अध्यक्ष व एक समुदाय के विरुद्ध असम्मानजनक बयानबाजी के चलते सांसदी गवां चुके राहुल गांधी बार बार काँग्रेस की उम्मीदों पर बर्फबारी कर देते हैं अपनी अपरिपक्व बयानबाजी, राजनीतिक फ़ैसले और पार्टी की जिताऊ रणनीति बनाने में।
यहीं कुछ हाल काँग्रेस व कांग्रेसियों के लिए संजीवनी माने जाने वाली पार्टी की महासचिव प्रियंका गाँधी के बारे में भी जनता के साथ साथ कहीं न कहीं पार्टी भी महसूस कर लेती है।
इसका उदाहरण है कि प्रियंका गाँधी को उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी नें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किया था।जबकि उस चुनाव में दिल्ली की कई बार मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित को काँग्रेस नें यूपी के चुनाव में सीएम के चेहरे के रूप में व उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणा की थी फिर उनको प्रियंका गाँधी के लिए पीछे कर दिया गया।
परिणाम रहा कि राहुल गांधी के नेतृत्व में वर्ष 2017 के चुनाव के बाद यूपी विधानसभा में काँग्रेस के 7 विधायक थे तो वहीं वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी के नेतृत्व व मुखड़े पर चुनाव लड़ी काँग्रेस की 5 सीट और कम होकर सिर्फ़ 2 सीट बची।जिसमें रामपुर ख़ास और फरेंदा सीट।यहां तक कि तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष व विधायक अजय कुमार लल्लू भी बुरी तरह से चुनाव हारे।
प्रियंका गान्धी व काँग्रेस को सबसे अपमान जनक हार का सामना अमेठी व रायबरेली लोकसभा के तहत सभी विधानसभा सीटों पर हुई थी जो कि उनकी गाँधी परिवार की “पोलिटिकल फेविकोल” लगी सीट मानी जाती रही है कई दशकों से।
गत 2019 के लोकसभा चुनाव में तो प्रदेश की 80 सीटों में से 79 पर सोनिया, प्रियंका व राहुल गांधी के चेहरे नेतृत्व वाली काँग्रेस को सिर्फ़ रायबरेली सीट पर सोनिया गाँधी ही जीत सकी।स्वयं काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी में बीजेपी प्रत्याशी व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से पराजित हो चुके हैं।
अब नीतीश कुमार विपक्ष के गठबंधन बनाने के लिए सबसे ज्यादा उतावला हो रहे हैं जैसे सब लोग मिलकर उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से भिड़ने के लिए आगे खड़ा कर देंगे।
विपक्षी दलों के दरवाज़े खटखटाने के बाद भी अभी तक नीतीश कुमार को या किसी अन्य नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष का नेता बनाने के लिए काँग्रेस समेत अन्य पार्टियां अभी तक तैयार नही हो पाया है।
नीतीश कुमार की अपनी पार्टी जनतादल यूनाइटेड कोई नेशनल पार्टी नहीं है लेकिन एक कांग्रेस को छोड़ कर केवल राज्य स्तर के दलों से गठबंधन करने की कोशिश कर रहै है।
हालांकि नीतीश दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल से भी मिल चुके हैं जिनकी पार्टी अब राष्ट्रीय दल है पँजाब व अन्य राज्यों में मिले मत प्रतिशत के अनुसार।
ऐसे गठबंधन को क्यों तरज़ीह देंगे केजरीवाल जबकि वह ख़ुद अपने को मोदी के सबसे बड़े राजनीतिक शत्रु के तौर पर प्रस्तुत करते हैं।बयान भी देते हैं कि देश को आगे ले जाना है तो कम पढ़ा लिखा नही बल्कि उच्च शिक्षित प्रधानमंत्री चाहिए।
नीतीश कुमार जोर लगा रहे है ममता को जोड़ने के लिए जिनकी टीएमसी अब नेशनल पार्टी नहीं रही, अखिलेश यादव से उम्मीद लगा रहे है जिनकी सपा भी राष्ट्रीय दल नहीं है और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का भी राष्ट्रीय दल का दर्जा ख़त्म हो गया है।
वर्तमान के राजनीतिक माहौल में शरद पवार खुद इतने भ्रमित हैं कि उन्हें पता ही नहीं महाराष्ट्र में एमवीए गठबंधन रहेगा या नहीं तो राष्ट्रीय स्तर के गठबंधन में कैसे जुड़ेंगे।अभी तो शरद पवार को अपनी पार्टी ही उन्हें उनकी “पॉवर” दिखा रही थी, जिसकी काट के लिए उन्होंने मंगलवार को पुस्तक विमोचन के बहाने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर अपने भतीज़े अजित पवार व उनके समर्थकों को चित्त करने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर अपनी अलग दाल पका रहे है कि वो ही प्रधानमंत्री बनेंगे।
नीतीश कुमार को कुछ नहीं सूझ रहा तो गोपालगंज के जिलाधिकारी रहे दलित वर्ग के जी कृष्णैया की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास भुगत रहे पूर्व सांसद व बाहुबली नेता आनंद मोहन में सहारा ढूंढ रहे हैं।
14 वर्ष की सजा पूरी होने के बाद 27 अन्य अपराधियों के साथ रिहा कर दिया राज्य सरकार के एक्ट में बदलाव करके।
जिसका तीखा विरोध आईएएस एसोशिएशन नें बिहार सरकार व केंद्र सरकार को पत्र लिखकर जताया है। यानी सजायाफ्ता मुजरिम लालू यादव के बाद एक और मुजरिम को साथ ले रहे हैं “सुशासन बाबू”नीतीश कुमार।
नीतीश कुमार हर तरह से राजनीतिक कलाबाजी कर रहे हैं लेकिन एक सवाल का जवाब उन्हें देना चाहिए कि उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता व उनके ख़ास साथी राज्यसभा सदस्य और वर्तमान में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह नीतीश के भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद भी राज्यसभा के उपसभापति पद पर कैसे बनें हुए हैं,जब नीतीश कुमार नें मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए विपक्षी एकता के लिए दिन रात एक किये हुए हैं?
हरिवंश जी एक काबिल नेता हैं और लगता है कि या तो नीतीश ने उन्हें पद छोड़ने के लिए कहा ही नहीं और यदि कहा तो उन्होंने नीतीश की बात मानने से मना कर दिया हो या फ़िर नीतीश कुमार बहुत आगे की रणनीति पर विपक्षियों की सोच से भी आगे की राजनीति कर रहे हो।
वैसे भी लालू प्रसाद यादव व उनके पुत्र अब नीतीश सरकार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव “पलटूराम” की उपाधि दी हुई थी विपक्ष में रहते हुए अपने चाचा नीतीश को।

लगता है नीतीश को भी राहुल गाँधी की तरह “विपक्ष जोड़ो यात्रा” पर भारत भ्रमण करना पड़ेगा लेकिन फिर भी बीजेपी व उससे जुड़े तमाम हिन्दू संगठन हिंदुओं के मानस में नीतीश का मुस्लिम प्रेम याद दिलाते रहेंगे। जिसमें एक महीने में 36 इफ्तार पार्टी और रामनवमी की शोभा यात्राओं पर हमलों के लिए हिन्दुओं को ही दोष देना और कैसे उनके और राजद के नेता भगवान् राम का अपमान करते रहे हैं।
हिन्दू मानस में यह भी याद ताज़ी रहने देंगे कि नीतीश सरकार के राज्य में फुलवारी शरीफ में NIA नें गजवा-ए-हिन्द 2047 का आतंकी प्लान तैयार हो गया, जिसके लिए नीतीश को जिम्मेदार माना जा सकता है “इशरत का अब्बू” होने के नाते।
हालांकि जिस नीतीश कुमार को कभी बीजेपी के नेता “ईशरत के अब्बू” कहते नही थकते थे वही बीजेपी वर्षो तक”इशरत के अब्बू”के साथ ही गलबहियाँ कर सत्ता सुख भोगते भी रहे।
विपक्षी एकता के लिए क़मर कसे जदयू नेता नीतीश कुमार को यह समझना होगा कि केवल “मोदी हटाओ” नारे से कुछ नहीं होगा क्योंकि मोदी तो उन राज्यों का भी बराबर ख्याल रख रहें है जहां विपक्ष की भी सरकार हैं।
वंदे भारत रेल राजस्थान में चलाई जहाँ काँग्रेस की सरकार है, तमिलनाडु में भी चलाई जहाँ पर डीएमके की सरकार है और पिछले दिनों केरल जहाँ पर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है में भी “Water Metro” का उद्घाटन कर जनता के लिए चलाया।
इतना ही नहीं अब दमन दीव के सिलवासा में भी मेडिकल कॉलेज शुरू कर दिया और वहाँ हॉस्पिटल का निर्माण भी हो रहा है,क्या और किस तरह से मुकाबला कर सकते हैं मोदी का आप लोग,आज़ादी के 75 साल बाद भी जातिवादी जनगणना का ढोल बजाकर?
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले जनवरी के मकर संक्रांति या उसके पश्चात कभी भी अयोध्या में रामलला की जन्मभूमि पर भव्य श्रीराममंदिर बनकर तैयार होने के बाद सम्भवतःपीएम मोदी ,मैं सम्भवतः इसलिए लिख रहा हूँ कि जन्मभूमि निर्माण कार्य का पूजन अर्चन बेहद भव्यता के साथ पीएम मोदी कर चुके हैं और उसका लाभ भी यूपी समेत कुछेक राज्यों के चुनाव में मिला था, अब मेरा मानना है कि राममंदिर का लोकार्पण राष्ट्रपति महामहिम द्रौपदी मुर्मू के हाथों से कराकर मोदी सरकार व बीजेपी यह संदेश देना चाहेगी कि उसने एक आदिवासी समाज की महिला राष्ट्रपति से लोकार्पण कराया।
ऐसे राजनीतिक रणनीति से बीजेपी के द्वारा फ़िर से रामलहर पर सवार होकर दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ न हो जाये इसकी काट के लिए विपक्षी पार्टियों द्वारा ख़ासकर बिहार की नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड व लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल व उत्तरप्रदेश की अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी जातिगत जनगणना को जोर शोर से मुद्दा बनाकर हिंदुत्व व श्रीराम नाम पर जातियों को भूलकर ख़ुद को हिन्दू मानकर थोक में वोट बीजेपी में जाने से रोकने के लिए इनको जाति के नाम पर बाँटकर सत्ता में आने की रणनीति पर चल रहे हैं।
विपक्षियों को मालूम है कि बीजेपी कितनी भी कोशिश कर ले मुस्लिम समुदाय बीजेपी को परास्त करने की ताकत रखने वाली पार्टी व प्रत्याशी को रणनीतिक मतदान करता है।
याद होना चाहिए कि बीजेपी के क़द्दावर व कट्टर हिन्दुत्व छवि के साथ लालकृष्ण आडवाणी जब राममंदिर आंदोलन के दौरान के देशभर में रामलहर पैदा करने के लिए रथयात्रा पर निकले थे तो देश का मतदाता तेजी से बीजेपी के साथ जुड़ने लगा था।
तब इसकी काट के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह नें आनन फानन में मण्डल आयोग की सिफारिश लागू करके जातिकार्ड के दाव से बीजेपी को मनवांछित राजनीतिक लाभ लेने से रोकने में काफ़ी हद तक सफ़ल रहे थे।
और भारतीय राजनीति का यह चेहरा भी देखना चाहिए कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार को बीजेपी बाहर से समर्थन दे रही थी और जनतादल की बीपी सिंह सरकार बीजेपी से समर्थन लेकर केंद्र में सरकार भी चला रही थी और सियासी संघर्षपथ पर चल भी रही थी।
अंत किया बिहार के मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव नें लालकृष्ण आडवाणी को बिहार की सीमा में घुसते ही गिरफ्तार करके।
उनके इस क़दम से बीपी सरकार से बीजेपी ने समर्थन लेकर सरकार गिराई क्योकि लालू प्रसाद यादव भी जनतादल नेता के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री थे।
ख़ैर लोकसभा चुनाव परिणाम तक राजनीतिक तेल देखिए व उसकी धार।

÷लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं÷