लेखक-अरविंद जयतिलक
आज बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती का जन्मदिन है। उन करोड़ों लोगों के लिए उत्साह का दिन है जो सामाजिक-राजनीतिक तौर पर मायावती को हाशिए के लोगों के जीवन में बदलाव का संवाहक मानते हैं। उन लोगों के लिए भी खुशी का दिन है जो समावेशी राजनीति के बरक्स जाति व धर्म के मोड़ पर ठहरी राजनीति को नई उर्जा देने का श्रेय सोशल इंजीनियरिंग की जादूगरनी मायावती को देते हैं। जिस तरह भारतीय राजनीति में स्थापित मूल्य व धारणाएं चेतन मन में उतरते हुए अवचेतन के प्रवाह बिंदू तक यात्रा करती हैं। ठीक उसी तरह मायावती के सामाजिक-राजनीतिक विचार और उनकी स्वीकारोक्ति भी हाशिए के लोगों के चेतन-अवचेतन मन में समायी हुई है। किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के हृदय-स्थल में उतर जाना आसान नहीं होता। लेकिन मायावती ने यह कर दिखाया है। सैकड़ों साल बाद जब भी भारतीय समाज का स्वरुप, चरित्र एवं चिंतन की व्याख्या का दायरा और उसके मूल्यों और स्वीकृतियों को देखने-समझने, मापने-परखने का उच्च मापदण्ड तय किया जाएगा उस कसौटी पर मायावती का कद ऊंचा दिखेगा। जब भी असमानता और अन्याय पर आधारित समाज के खिलाफ तनकर खड़ा होने, अपनी आवाज को मुखर करने, हाशिए के लोगों को गोलबंद करने और समानतावादी विचारों को प्रस्फुटित करने वाले सियासतदानों का इतिहासपरक मूल्यांकन होगा उस कसौटी पर भी मायावती अग्रिम पंक्ति में दिखेंगीे। उनका अतीत और वर्तमान संघर्ष दोनों ही सदैव समतामूलक समाज के निर्माण, राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और समानता की दिशा में काम करने और उससे प्रेरणा लेने के तौर पर एक मिसाल है। सच कहें तो मायावती का सामाजिक-राजनीतिक योगदान एवं सर्वजन की चेतना को मुखरित करने की क्षमता कमाल की है। यह खूबी देश के अन्य सियासतदानें में देखने को नहीं मिलती। मायावती को समझने-बुझने के लिए अतीत और वर्तमान दोनों ही समाज की बुनावट, उसकी स्वीकृतियां, विसंगतियां एवं धारणाओं को समझना आवश्यक है। इसलिए और भी कि उन्होंने समय की मुख्य धारा के विरुद्ध खड़ा होने और उसे बदलने के एवज में अपमानित और उत्पीड़ित करने वाली हर प्रवृत्तियों के ताप को सहा है और जीया भी है। उनके पास एकमात्र सामाजिक-राजनीतिक विचारों का बल रहा जिसके बूते वह हाशिए पर खड़े लोगों को मुख्य धारा में लाने में कामयाब हुई। अब भी उनकी कोशिश बहुजन-सर्वजन की चेतना को मुखरित करना है। हर समाज की भेदभावपरक व्यवस्था ही व्यक्ति के राजनीतिक-सामाजिक विचारों को तार्किक आयाम और जोखिम उठाने की ताकत देता है। साथ ही भेदभाव और अनर्थकारी व्यवस्था के खिलाफ मुठभेड़ का माद्दा भी। कहते हैं न कि नुकसान की क्षमता विकसित किए बिना अन्याय के खिलाफ नहीं लडा जा सकता।़ मायावती ने इस कहावत को भलीभांति चरितार्थ किया है। अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए नुकसान की क्षमता विकसित की हैं और समय-समय पर उद्घाटित भी किया है। जिस जातिभेद और वर्णभेद से उत्पन हलाहल को डाॅक्टर अंबेडकर और कांशीराम ने पीया उसी पीड़ा को मायावती ने भी निकटता से महसूस किया। ऐसे भेदभावपरक व्यवस्था में समाज और राजनीति के गुणसूत्र को बदलने की भीष्म प्रतिज्ञा ली और उसका क्रियान्वयन के लिए जीवन को जोखिम में भी डाला। 1977 में कांशीराम के संपर्क में आने के बाद उन्होंने एक पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ बनने का फैसला लिया। राजनीति में आने से पहले वह एक शिक्षिका थी। सरकारी नौकरी का त्यागकर राजनीति के अंधेरे गुफा में प्रवेश करना आसान नहीं होता। वह भी तब जब एक पिता अपनी बेटी को एक कलेक्टर के रुप में देखने का आकांक्षा पाल रखा हो। लेकिन नियति ने कुछ और तय कर रखा था। कहा जाता है कि शिक्षिका के रुप में काम करते हुए उनकी मुलाकात कांशीराम से हुई जिसके कारण उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल गयी। उन्होंने कांशीराम के साथ मिलकर सामाजिक-राजनीतिक गैर-बराबरी को समाप्त करने लिए परंपरागत मूल्यों और मान्यताओं को हथियार बनाने के बजाए उसे ही निशाने पर लिया। पुरातनपंथी धारणाओं पर तीव्रता से हमला बोला और व्यवस्था की सामंती ढांचे को उखाड़ फेकने के लिए राजनीति को हथियार बनाया। उन्होंने सर्जनात्मक जिद् का सहारा लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहंुचा कि जब तक समाज में जाति व्यवस्था, आर्थिक असमानता और वर्ग विभेद बना रहेगा तब तक अंतिम पांत के अंतिम व्यक्ति को न्याय और अधिकार मिलना कठिन है। सो उन्होंने खुद को राजनीति के झंझावात में झोंक दिया। चूंकि उनके मन में समतामूलक व एक व्यवस्थित राजनीतिक समाज के निर्माण और स्थापना का वैचारिक द्वंद उफान मार रहा था। उनका निष्कर्ष था कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति ही वह जरिया है जिसके जरिए वंचितों को न्याय दिलाया जा सकता है। उन्होंने कांशीराम के साथ मिलकर डा0 अंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक दर्शन को अपना हथियार बनाया और गांव, कस्बों और शहरों का खाक छानते हुए करोड़ों लोगों को अभियान से जोड़ा। वंचितों को एकजुट होने का संदेश दिया। लोगों के अपार जनसमर्थन से उत्साहित होकर उन्होंने कांशीराम के साथ मिलकर 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना की। इस राजनीतिक विकल्प ने देश में जमे-जमाए राजनीतिक दलों को चुनौती परोस दी। राजनीति के पैमाने बदल दिए। राजनीति को नया रंग-रुप दिया। नतीजतन भारतीय राजनीतिक समाज में खदबदाहट बढ़ गयी। कांशीराम के राजनीतिक विचार और मायावती के तेवर ने हाशिए के लोगों को गोलबंद कर दिया। नतीजा 1984 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को 10 लाख से अधिक मत प्राप्त हुए। इस नतीजे से मायावती को बहुजन समाज की ताकत का पता चल गया। अब उनका मकसद सिर्फ एक सांसद और विधायक बनना नहीं रहा बल्कि हाशिए के लोगों के जीवन में बदलाव लाना बन गया। उन्होंने हाशिए के लोगों को उनकी शक्ति का अहसास कराते हुए राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने का राह चूना। वंचितों को सत्ता तक पहुंचाने और उनके स्वाभिमान को समाज में स्वीकृति दिलाने के निमित्त कांशीराम के साथ मिलकर राजनीति की प्रयोगशाला में तरह-तरह के प्रयोग किए। कभी समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ कर सत्ता का संधान किया तो कभी धुर दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी का सहयोग लेकर सत्ता-सिंहासन का वरण किया। उनके राजनीतिक सफर पर दृष्टिपात करें तो 1989 में बिजनौर से लोकसभा सदस्य और 1994 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुई। कांशीराम की सलाह पर 1993 में सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। तब बसपा के 67 उम्म्मीदवार जीते और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। लेकिन यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चली। 2 जून 1995 को उत्तर प्रदेश की राजनीति में गेस्टहाउस कांड जिसमें मायावती की जान लेने की कोशिश हुई, ने राजनीति के मिजाज को बदल दिया। लेकिन कहते हैं न कि जाको राखे साईयां मार सके ना कोय। जिसको मिटाने की कोशिश हुई वहीं प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गयी। मायावती ने 3 जून से 18 अक्टुबर 1995 तक शासन किया। कानून का राज स्थापित कर बेहतर सत्ता संचालन का मिसाल गढ़ा। 1996 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 67 सीटें हासिल हुई और त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनी। तब उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर छह-छह महीने की सरकार चलाने का निर्णय लिया। उन्होंने 1997 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में अपना दूसरा कार्यकाल 21 मार्च से 20 सितंबर 1997 तक पूरा किया। 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और 2012 तक विकास के नए-नए कीर्तिमान गढ़े। हालांकि भाजपा के साथ गठबंधन के प्रयोग की खूब आलोचना हुई। लेकिन वे इससे विचलित नहीं हुई। मायावती अच्छी तरह जानती हैं कि सत्ता के बगैर वंचितों और शोषितों को हक दिलाना संभव नहीं है। लिहाजा वह अपने राजनीतिक विचार को ठोस रुप देने के लिए किस्म-किस्म के समझौते को बार-बार आयाम देती रहती हैं। यह सच्चाई भी है कि जिसका राजनीतिक चिंतन व सामाजिक दर्शन स्पष्ट होता है उसका राजनीतिक नजरिया भी उतना ही स्पष्ट होता है। मायावती इसकी मिसाल हैं। वह जानती हैं कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनैतिक सत्ता अधिकार हासिल करने के लिए किसी भी दल की अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसा करना हाशिए के समाज के साथ छल और उन्हें शेष समाज से अलग-थलग करने जैसा होगा। इस सिद्धांत ने मायावती की सियासत को मजबूती दी है और वह आज भी भारतीय राजनीति की केंद्रबिंदु है।

(लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं)