लेखक -राजेंद्र द्विवेदी
राहुल गांधी देश के सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के उत्तराधिकारी और विपक्ष के नेता हैं। 2024 लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के सबसे बड़े चेहरे थे। चुनाव में केरल, पश्चिम बंगाल तथा अन्य कई आदि राज्यों में कांग्रेस से समझौता नहीं हुआ हो लेकिन मोदी के सामने राहुल का चेहरा था और भाजपा विरोधी सभी दलों के नेता के रूप में परसेप्शन बना हुआ था। इसका लाभ भी मिला और भाजपा बहुमत से दूर 240 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद चंद्र बाबू नायडू और नितीश के समर्थन से मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। बहुमत न मिलने के कारण मोदी पर पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर सवाल उठाये गए। यह माना जा रहा था कि बहुमत न होने के कारण मोदी 2014 और 2019 में मिले बहुमत की तरह 2024 में कमजोर होंगे लेकिन ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है। क्योकि राहुल गाँधी को गठबंधन की सियासत करना नहीं आता। इसलिए लोकसभा चुनाव के समय एकजुट होकर जिस ताकत के साथ गैर भाजपा दलों ने मोदी को बहुमत से रोका वह राहुल के कारण बिखरते जा रहे हैं।
राहुल गांधी अपने शर्तों पर ही गठबंधन चलना चाहते हैं। दूसरे क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक परिस्थितयों पर धयान नहीं दे रहे और न हो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर साथ में जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। अडानी और मोदी के रिश्ते एक मुद्दा हो सकता है लेकिन इसी पर केन्द्रित होकर निरन्तर बयान और सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष कर रहे हैं। जबकि ममता, अखिलेश सभी की अपनी राजनीतिक मजबूरियां हैं कि वह अडानी के मुद्दे पर राहुल के सुर में सुर नहीं मिला सकते हैं। राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली है। उन्हें अपने सहयोगी दलों से मिलकर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाना चाहिए जिसमें अडानी मुद्दा शामिल न हो। अडानी के आलावा भी बेरोजगारी, महंगाई और बढ़ती सांप्रदायिकता और बहुत सारे मुद्दे है जिस पर ममता और अखिलेश को साथ लेकर चल सकते थे। लेकिन ऐसा करने में वह असफल रहे क्योकि राहुल और उनके आस-पास जुड़े लोगों को गठबंधन धर्म निभाना नहीं आता है।
गठबंधन धर्म निभाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने कैसे 24 विभिन्न विचारधारा को साथ लेकर सरकार चलाई वह आदर्श है। कैसे और किस तरह विपरीत परिस्थितियों में दूसरे विचारधारा के दलों को जोड़कर आम सहमति से कार्य किया जा सकता है। क्योकि हर दल की अपनी प्राथमिकताएं और होती हैं जो भी गठबंधन का नेतृत्व करे उसे भी दूसरे दलों की परिस्थितियों पर भी ध्यान देना चाहिए। अडानी-अम्बानी देश के सबसे बड़े उद्योगपति है। ममता को पश्चिम बंगाल में उद्योग लगाने तथा चुनाव में आर्थिक मदद की भी जरुरत होती है। समाजवादी पार्टी भी देश का तीसरा बड़ा दल है उसे भी चुनाव लड़ने या सियासत के लिए धन की जरुरत है। जो अडानी जैसे उद्योगपति से गतिरोध नहीं कर सकते।
यही स्थिति अन्य इंडिया गठबंधन से जुड़े दलों की है। क्योकि सभी को सियासत के लिए धन की जरुरत है। दूसरे सभी दलों में केंद्रीय जांच एजेंसियों और मोदी शाह के आक्रामक सियासत की सामना करने की क्षमता नहीं है। गैर भाजपा दलों में कोई ऐसा नहीं है जो कि भ्रष्टाचार एवं अन्य मामलों में घिरे न हो। हेमंत सोरेन एवं केजरीवाल जैसे बड़े नेता जेल भी जा चुके हो। जांच के घेरे में ममता और अखिलेश भी हैं। इसलिए अडानी के खिलाफ आकर सीधा फ्रंट मोदी पर नहीं खोलना चाहिए क्योकि अडानी पर बोलना मोदी पर सीधा हमला है। राहुल गांधी यही गलती कर रहे है। राहुल गाँधी अडानी करते करते अकेले पड़ते जा रहे हैं। समय की मांग है कि भाजपा से लड़ने के लिए राहुल गाँधी को अपने सभी सहयोगी के साथ मिलकर एक साझा प्रोग्राम आम सहमति से बनाना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)