लेखक~मुकेश सेठ
50-50 कोस में जब बच्चा रोता था तो माँ कहती थी चुप हो जा नही तो”गब्बर सिंह” आ जायेगा
प्रत्येक किरदार के जीवन्त अभिनय,जय-वीरू की दोस्ती,ठाकुर का बदला,बसन्ती की बकबक,तो विधवा राधा की लालटेन जलाते दृश्य दर्शकों के मन मस्तिष्क में अभी है ताज़ा
♂÷सिने निर्माता गोपाल दास सिप्पी की”शोले”,निर्देशक उनके पुत्र रमेश सिप्पी की “शोले”,दोनों बाजू कटे ठाकुर के किरदार में जीने वाले संजीव कुमार की “शोले”,पर्दे पर आते ही अपने गेटअप व अभिनय से दर्शकों को भयाक्रांत कर देने वाले डकैत के रूप में अमजद खान की “शोले”,धर्मेंद्र कुमार-अमिताभ बच्चन की जय-वीरू की दोस्ती की दास्तां वाली “शोले”,बसन्ती ताँगेवाली के किरदार में समा जाने वाली हेमामालिनी की बकबक वाली “शोले”,श्वेत वस्त्र धारी विधवा रुप में संध्या होने पर लालटेन जलाने वाली राधा के पात्र में डूबने वाली जया भादुड़ी की “शोले”,जेलर के रूप में अपनी अनोखी शैली में ऑर्डर देने वाले असरानी की”शोले” के प्रत्येक कलाकारों नें किरदारों को पर्दे पर ओढ़-बिछा लिया था।
क्या लिखे, कितना लिखे इन अभिनय के महारथियों के जादुई तिलिस्मी अभिनय के सन्दर्भ में। पिछले 48 सालों में “शोले” फ़िल्म के बारे में जितनी बात हुई होगी लिखी गयी होगी,मुझे नहीं लगता कि हिंदी सिनेमा के 110 सालों के इतिहास में इतनी बातें किसी ओर फ़िल्म के लिए हुई होगी।
ज्ञातव्य है कि शोले फ़िल्म की रिलीज़ 15 अगस्त 1975 को हुई थी फ़िल्म की समयसीमा 204 मिनट की है इसकी लागत उस समय 3 करोड़ की भारी भरकम धनराशि से जीपी सिप्पी ने किया था,फ़िल्म नें कुल कारोबार 15 करोड़ की आश्चर्यजनक कमाई की थी।
याद हो कि रिलीज़ के शुरुआती दिनों में शोले ने अपने प्रदर्शन से निर्माता निर्देशक व कलाकारों को कमज़ोर प्रदर्शन से निराश कर दिया था किन्तु दर्शकों के मुंहजबानी प्रचार नें फ़िल्म नें ऐसी रफ़्तार पकड़ी की आज भी “शोले” दूसरी नही बन पाई।
मुम्बई के मिनर्वा थियेटर में “शोले”फ़िल्म लगातार 5 सालों तक पर्दे पर लगी रही अब इसे 3D में तब्दील कर एक बार फ़िर वर्ष कुछ वर्ष भी रिलीज किया गया था।
इसकी कहानी ग्रामीण परिवेश की है जिसमें डकैत गब्बर सिंह के नाम से रामनगर वासी थर्राते थे,कांपते थे।
गब्बर सिंह के द्वारा ठाकुर जो कि पुलिस ऑफिसर रहते हैं कि दोनों हाथ काट दिए जाते है तब गब्बर सिंह को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए जेल से भागे दो दोस्तों जय वीरू को ठाकुर बुलाते हैं और तब यह दोनों गब्बरसिंह को तमाम घटनाक्रम के पश्चात पकड़ कर सिपुर्द कर देते हैं।
इस फ़िल्म की कालजयी पटकथा व सम्वाद सलीम जावेद की जोड़ी नें लिखी हैं तो सङ्गीत का जादू राहुल देव बर्मन नें पैदा किया।
हालांकि “शोले” फ़िल्म को ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट ने वर्ष 2002 के सर्वश्रेष्ठ 10 भारतीय फिल्मों में इसे प्रथम पायदान पर रखा था।
वर्ष 2005 में 50वें फिल्मफेयर पुरस्कार समारोह में इसे 50 वर्षो की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार दिया गया था।
~ पूरे पचास हजार……. मात्र तीन शब्द बोलने वाला साम्बा आज की हजार करोड़ कमाने वाली किसी फिल्म के प्रमुख पात्र से भी ज्यादा फेमस है।
~ जय और वीरू पिछली पांच पीढ़ियों से “दोस्ती” का एक पर्याय बने हुए हैं।
~ पचास-पचास कोस तक गब्बर के खौफ और ठाकुर की रंजिश की कोई दूसरी मिसाल आज तक नहीं है।
~बसंती की बक-बक अब तक गुदगुदाती है।तो राधा की खामोशी ओढे लालटेन जलाने वाली छवि कुछ क्षणों के लिए अंदर गहरे तक सूनापन कर जाती है।
~26 जनवरी 1996 को पहली बार दूरदर्शन पर आई तो टीआरपी के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए।इसमें एक सवाल पूछा गया था जिसके जवाब में 16 करोड़ पोस्टकार्ड लिखे गए थे।
यही एक ऐसी फ़िल्म है जिसे एक-एक दृश्य के लिए देखा जा सकता है,प्रत्येक किरदार चिरंजीवी है,हर संवाद अपने आप मे एक चैप्टर समेटे हुए हैं।गब्बर सिंह का “होली कब है?” मने एक सवाल पूछना तक चिरस्मृति सम्वाद बन जाता है।जिस पर किस्से सुनाए जा सकते हैं,पाठ्यक्रम(मैनेजमेंट)में शामिल हो सकती है।
जेपी आंदोलन के बाद इमरजेंसी के माहौल में रचा गया मनोरंजन आम भारतीय जनमानस के डीएनए में उतर गया है रक्त बनकर शिराओं में दौड़ रहा है।हिंदी फिल्मों के इतिहास में शोले ने जो अकल्पित स्थान हासिल कर लिया है उसे अन्य कोई भी न तो स्मृतिशेष कर सकता है और न ही बदल सकता है।
शोले चलचित्र को किसी आईएमबीडी, फिल्मफेयर या नेशनल अवार्ड ज्यूरी ने नही,बल्कि देश-दुनियां के दर्शकों नें अपने नैन-कर्ण के जरिये देख-सुनकर हृदय व स्मृति में अमिट कर लिया है तो वहीं अपने प्यार से भर-भर कर नवाजा है।

÷लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं÷