लेखक~ओमप्रकाश तिवारी
♂÷ कर्नाटक से लेकर महाराष्ट्र तक मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान को सम्मान देने की होड़ लगी रहती है। लेकिन उसी कर्नाटक में छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता महाराज शहाजीराजे की समाधि शताब्दियों से खुले आसमान के नीचे जर्जर अवस्था में पड़ी है, विधानसभा चुनाव के दिनों में भी उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। उनका भी नहीं, जो महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकते नहीं थकते।
हाल ही में प्रकाशित उपन्यासकार विश्वास पाटिल के उपन्यास ‘महासम्राट’ के पहले खंड ‘झंझावात’ की भूमिका में पाटिल ने यह तथ्य उद्घाटित किया कि कर्नाटक के दावणगेरे जिले के होदीगिरे गांव में महाराज शहाजीराजे की समाधि 350 वर्षों से खुले आसमान के लिए धूल खा रही है। स्वतंत्रता के बाद भी आज तक किसी राजनीतिक दल ने इस समाधि के जीर्णोद्धार का गंभीर प्रयास नहीं किया है। समाधि के ऊपर पेड़ की एक छांव तक नहीं है, न ही उस पर किसी तरह का आवरण डाला गया है। यह उपन्यास पाटिल द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन चरित पर चार खंडों में लिखे जा रहे उपन्यासों में पहला है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर ‘पानीपत’ जैसा कालजयी उपन्यास लिख चुके विश्वास पाटिल कहते हैं कि उन्हें उम्मीद थी कि उनके द्वारा यह तथ्य उद्घाटित किए जाने के बाद कम से कम महाराष्ट्र में तो हलचल मचेगी ही। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यहां तक कि खुद को शिवप्रेमी और शंभू प्रेमी कहनेवाले राजनीतिक दलों ने भी अब तक चुप्पी ही साधे रखी है। सिर्फ वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे (तब वह मंत्री थे) ने तुरंत सक्रियता दिखाते हुए विश्वास पाटिल को बुलाकर टोकन रकम के रूप में पांच लाख रुपए दिए और उन्हें अपने सहयोगियों के साथ कर्नाटक भेजकर वहां ‘राजा शहाजी स्मृति मंडल’ का गठन करवाया। साथ ही इस मंडल के सदस्यों को कर्नाटक से अपने खर्च पर मुंबई बुलाकर, आगे सारे काम खुद अपने हाथों से संपन्न कराने का आश्वासन भी दिया। हालांकि उसके बाद से इस काम में बहुत ज्यादा प्रगति नहीं हो सकी है।
शहाजीराजे की समाधि की देखरेख के लिए स्थानीय लोगों द्वारा बनाए गए दावणगेरे शहाजीराजे ट्रस्ट के अध्यक्ष मल्लेशराव बताते हैं कि ट्रस्ट द्वारा कई बार समाधि के जीर्णोद्धार की मांग किए जाने पर कर्नाटक की अनेक सरकारों ने बड़ी राशि देने का वायदा तो किया, लेकिन किसी न किसी कारण से ये राशि ट्रस्ट के पास आते-आते रह गई। विश्वास पाटिल कहते हैं कि शिवाजी को शिवाजी बनानेवाले उनके पिता शहाजी राजे ही थे। जिनकी वीरता का लोहा सोलहवीं शताब्दी में उत्तर में मुगलों से लेकर दक्षिण में निजामशाही एवं आदिलशाही रियासतें तक मानती थीं। शिवाजी को गुरिल्ला युद्ध की पद्धति शहाजी ने ही सिखाई। वह संस्कृत के विद्वान भी थे। उनके द्वारा तैयार की गई राजमुद्रा का उपयोग ही बाद में छत्रपति शिवाजी महाराज करते रहे, और आज भी उस समय की राजमुद्रा के रूप में वह संग्रहालयों में संरक्षित है।
(साभार दैनिक जागरण)
÷लेखक महाराष्ट्र दैनिक जागरण के ब्यूरो इन चीफ़ हैं÷