लेखक-अरविंद जयतिलक
अमेरिका के डेलवेयर के विलमिंगटन में क्वॉड (क्वाड्रिलेटरल सेक्युरिटी डायलॉग) देशों का ऐतिहासिक सालाना लीडर्स समिट संपन्न हो गया। इस समिट में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा क्वॉड के सदस्य देशों मसलन अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन, जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और आस्टेªलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने शिरकत की। सदस्य देशों ने अपने साझा बयान में दक्षिण चीन सागर का जिक्र करते हुए दो टूक कहा कि ‘हम पूर्वी दक्षिण चीन सागर के हालात को लेकर चिंतित हैं और सभी को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करना चाहिए।’
उल्लेखनीय है कि क्वॉड देशों का इशारा उस चीन की ओर है जो दक्षिण चीन सागर में अपनी दादागिरी दिखा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने अनौपचारिक बातचीत के दरम्यान कहा कि चीन क्वॉड देशों की परीक्षा ले रहा है। इसके अलावा सदस्य देशों ने आतंकवाद और हिंसक चरम पंथ की भी जमकर निंदा की। साथ ही इससे निपटने के लिए मिलकर काम करने की प्रतिबद्धता भी जतायी। भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कहा कि क्वॉड समूह के देश किसी देश के खिलाफ नहीं है। बल्कि हम सभी कानून पर आधारित इंटरनैशनल सिस्टम, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के प्रति सम्मान और मुद्दों के शांतिपूर्ण समाधान के समर्थन में हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा कि क्वॉड समूह किसी भी ऐसी एकतरफा कार्रवाई का दृढ़ता से विरोध करता है, जो बल अथवा दबाव के जरिए यथास्थिति को बदलने की कोशिश करता है। किसी से छिपा भी नहीं है कि चीन पूरे दक्षिण चीन सागर पर अपनी संप्रभुता का दावा करता है। वहीं वियतनाम, मलेशिया, फिलीपींस, ताइवान और ब्रुनेई अपना-अपना दावा करते हैं। चीन यहां नकली द्वीप बनाकर अपने सैनिकों को तैनात कर रहा है। इसी खतरे को भांपते हुए क्वॉड के सदस्य देशों ने रणनीति के तहत इस क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने की नीति में तेजी लायी है। देखें तो क्वाड के सदस्य देशों में कोई ऐसा नहीं है जिसका चीन से तनातनी न हो।
बहरहाल दक्षिण चीन सागर और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वॉड देशों की नई गोलबंदी से चीन उत्तेजित है और नाराजगी जाहिर करते हुए बार-बार कह रहा है कि क्वॉड देश इस क्षेत्र में तनाव बढ़ा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र की संप्रभुता को मिल रही चुनौती के लिए एकमात्र चीन ही जिम्मेदार है। उसके द्वारा निर्मित इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही क्वॉड जैसे संगठन की जरुरत महसूस की गई। याद होगा 2007 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने स्पष्ट रुप से कहा था कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उभरती सामरिक चुनौतियों से निपटने के लिए हम सभी को तैयार रहना होगा। उनकी दूरदर्शी सोच और परिकल्पना ही आगे चलकर क्वॉड के गठन का आधार बनी। गौर करें तो क्वॉड के गठनकाल से ही चीन की बेचैनी बढ़ी हुई है। उसे लग रहा है कि क्वाड में शामिल देश उसके खिलाफ साजिश रच रहे हैं।
वह क्वाड को एक उभरता हुआ ‘एशियाई नाटो’ के तौर पर देख रहा है। वह जानता है कि क्वाड की मजबूती से इस क्षेत्र में उसकी मनमानी पर नियंत्रण लगेगा और समुद्र के जरिए दुनिया पर राज करने की उसकी मनोकामना पूरी नहीं होगी। यह सच्चाई भी है कि क्वॉड का लक्ष्य प्रशांत महासागर, अमेरिका और आस्टेªलिया में विस्तृत नेटवर्क के जरिए जापान और भारत के साथ मिलकर इस क्षेत्र में एक ऐसा वातावरण निर्मित करना है जिससे एक स्वतंत्र, खुली और समावेशी विकास का मार्ग प्रशस्त हो। नेविगेशन की स्वतंत्रता हो तथा ओवर-फ्लाइट एवं आसियान के निर्माण को लेकर काम किया जाए। समझना होगा कि क्वॉड के सदस्य देश अपने पहले वर्चुअल सम्मेलन के दौरान ही चीन को अपने हद में रहने की सलाह दे चुके हैं। तब अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन ने कहा था कि आस्टेªलिया के साथ चीन की आक्रामकता, जापान के सेनकाकू द्वीपों के आसपास उत्पीड़न और भारत के साथ सीमा पर तनातनी को लेकर अमेरिका किसी भ्रम में नहीं है।
वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हर परिस्थितियों से निपटने को तैयार है। याद होगा गत वर्ष इसी क्षेत्र में अमेरिका समेत 13 देशों ने ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह’ (आईपीईएफ) व्यापारिक समझौते को आकार देकर चीन की बढ़ती दादागीरी और धौंसबाजी पर निर्णायक लगाम लगाने की कवायद की थी। इस आर्थिक ढांचे से जुड़ने वाले देशों में अमेरिका के अलावा आस्टेªलिया, ब्रुनेई, भारत, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलिपीन, सिंगापुर, थाइलैंड और वियतनाम शामिल हैं। किसी से छिपा नहीं है कि दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों पर गिद्ध दृष्टि लगा बैठे चीन इस क्षेत्र में चोरी-छिपे मछलियों का बड़े पैमाने पर शिकार कर रहा है। इस क्षेत्र में नब्बे फीसदी से अधिक मछलियों के शिकार के लिए एकमात्र बीजिंग ही जिम्मेदार है। उसके जहाज जबरन विशेष आर्थिक जोन की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं और पर्यावरण के साथ-साथ बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान को अंजाम देते हैं।
चीन की इस हरकत से सभी देश परेशान है। दूसरी ओर वह इस इलाके में सुरक्षा बेड़ा खड़ा कर अन्य देशों की संप्रभुता और सुरक्षा को चुनौती दे रहा है। ऐसे में उस पर नकेल कसना बेहद जरुरी हो गया है। अच्छी बात है कि इस क्षेत्र के सदस्य देशों के बीच सहमति बनती जा रही है। सभी देश सैटेलाइट सिस्टम का इस्तेमाल कर चीन की हरकतों पर लगाम कसने को तैयार हैं। द्वीपीय देशों का भारत के साथ आने से चीन की बेचैनी और छटपटाहट और बढ़ेगी। लेकिन जिस तरह से हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देश चीन के खिलाफ मोर्चा बना रहे हैं उससे स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में अब चीन की दादागीरी नहीं चलने वाली है। चीन के खिलाफ यह पहल इसलिए भी आवश्यक है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुख्य धुरी है। मौजूदा समय में यह क्षेत्र भू-राजनीतिक व सामरिक रुप से वैश्विक शक्तियों के मध्य रण का क्षेत्र बना हुआ है। इस क्षेत्र की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या के तकरीबन एक तिहाई से ज्यादा है। विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 60 फीसदी और विश्व व्यापार का 75 फीसदी कारोबार इसी क्षेत्र से होता है। देखें तो इस क्षेत्र में अवस्थित बंदरगाह विश्व के व्यस्ततम बंदरगाहों में शुमार हैं।
यह क्षेत्र इसलिए भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि यहां उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने वाले क्षेत्रीय व्यापार और निवेश की अपार संभावनाएं हैं। किसी से छिपा नहीं है कि यह क्षेत्र उर्जा व्यापार के लिहाज से भी इस क्षेत्र के देशों के लिए अति संवेदनशील है। ऐसे में इस क्षेत्र को आर्थिक व सामरिक दृष्टि से सुरक्षित रखने के लिए ही क्वाड के अलावा ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह’ और ‘भारत-प्रशांत द्वीप सहयोग’ जैसे नए-नए गठजोड़ आकार ले रहे हैं। तथ्य यह भी कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ‘मुक्त एवं स्वतंत्र’ क्षेत्र बनाने के लिए अमेरिका भारत-जापान संबंधों के महत्व को सार्वजनिक रुप से स्वीकार चुका है तथा साथ ही अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र की नीति सर्वोच्च प्राथमिकता में है। दो राय नहीं कि विगत दशकों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर चीन की विशिष्ट पहचान बनी है और वह आर्थिक सुधारों के जरिए विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका है।
लेकिन अब वह जिस आक्रामक तरीके से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी दखलदांजी बढ़ा रहा है उससे अमेरिका, भारत, आस्टेªलिया, जापान के अलावा इस क्षेत्र से जुड़े अन्य देशों का चिंतित होना लाजिमी है। चीन इन देशों की मौजूदा गोलबंदी को समझ रहा है इसीलिए वह इन देशों की भू-संप्रभुता व सामुद्रिक सीमा का लगातार अतिक्रमण कर रहा है। दरअसल उसकी मंशा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, आस्टेªलिया, फ्रांस और जापान की भूमिका को सीमित कर अपने प्रभाव का विस्तार करना है। उसे भय है कि अगर इस क्षेत्र में इन देशों की निकटता बढ़ी तो परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हो सकती है। इसलिए और भी कि जापान ‘एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग’ (एपीईसी) संगठन में भारत की सदस्यता का लगातार वकालत कर रहा है। चीन अच्छी तरह जानता है कि अगर भारत इस संगठन का सदस्य बनता है तो उसकी मनमानी और विस्तारवादी नीति पर लगाम लग सकता है।

(लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं)