★मुकेश सेठ★
★मुम्बई★
{पजेशन और बिलॉन्गिंग जैसे दो शब्दों पर बहस में ही कट गया सुप्रीम कोर्ट का 20वा दिन}
[मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता राजीव धवन ने दलीलें रखी कि पजेशन टर्म ऑफ लॉ है जबकि बिलॉन्गिंग टर्म ऑफ आर्ट]
(जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ ने कहा अखाड़ा तो सेवायत है ,यह उनका अधिकार है दलील ये भी है अखाड़ा रामलला का सेवायत है)

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने अयोध्या राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद का 20वां दिन दो शब्दों की व्याख्या और उस पर बहस में ही बीत गया।
अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का 20वां दिन
मुस्लिम पक्षकारों के वकील राजीव धवन ने पेश की दलीलें
अयोध्या मामले में 20वें दिन की सुनवाई कानून और कला से ओतप्रोत दो शब्दों में ही निकल गई. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने अयोध्या का राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद का 20वां दिन दो शब्दों की व्याख्या और उस पर बहस में ही बीत गया. ये दोनों शब्द थे पजेशन और बिलॉन्गिंग।
मुस्लिम पक्षकारों के वकील राजीव धवन ने व्याख्या दी कि पजेशन टर्म ऑफ लॉ है, जबकि बिलॉन्गिंग टर्म ऑफ आर्ट यानी Possesion शब्द कानून का शब्द है जबकि belonging शब्द term of art है यानी इसका कलात्मक इस्तेमाल हो सकता है। कलात्मक इस्तेमाल यानी इससे इस शब्द का अर्थ अलग-अलग परिस्थितियों में अलग हो सकता है।
उनके इस तर्क पर जस्टिस बोबडे ने पूछा कि possesion के साथ belonging टर्म ऑफ आर्ट में अलग अलग कैसे है,इस पर जस्टिस नजीर ने भी कहा कि belonging शब्द तो निर्मोही अखाड़े की याचिका में भी है, जिसके जरिए उन्होंने इस जमीन पर अपना दावा किया है।अब आपके मुताबिक इसका अलग अर्थ तो किसी भी कानून में नहीं है आप इस अलग अर्थ पर क्यों बहस कर रहे हैं।
इन सवालों पर धवन ने कहा कि याचिका में निर्मोही अखाड़े ने जो लिखा है उसके मुताबिक, belonging का मतलब ‘कुछ और है’ (something else). इस शब्द के कई अर्थ निकलते हैं. क्योंकि निर्मोही अखाड़ा सिर्फ सेबियट यानी सेवायत के अधिकार सुरक्षित और संरक्षित रखने का ही दावा करता रहा है। उसका पहले जमीन पर कब्जे का कोई दावा था ही नहीं।
इस पर जस्टिस नजीर ने भी पूछा कि आप कल तक तो सह अस्तित्व यानी को एक्जिस्टेंस की बात कह रहे थे।आज आप कुछ और कह रहे हैं क्या आपने अपनी दलील और अपील में कुछ बदलाव कर लिया है? इस पर धवन का कहना था कि बदलाव नहीं है वो तो ये साबित करना चाह रहे हैं कि जब तक हम अंदर उपासना कर रहे थे और निर्मोही अखाड़ा बाहर राम चबूतरे पर तब तक सब ठीक था।
सह अस्तित्व की तरह, लेकिन जब छल से अखाड़े के साधु आंतरिक अहाते में यानी मुख्य इमारत के केंद्रीय गुंबद के नीचे ही मूर्ति रख गए और हम पर उल्टे मालिकाना हक का केस कर दिया तो फिर सह अस्तित्व कैसा?
इस पर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अखाड़ा तो सेबियट यानी सेवायत है और यह उनका अधिकार है,दलील ये भी है कि अखाड़ा राम लला का सेवायत है। इस पर धवन ने जवाब दिया कि हमको देखना होगा कि सेबियट के क्या अधिकार हैं?
सेबियट के अधिकार सीमित हैं यानी उपासना और सेवा का अधिकार तो है, लेकिन भूमि या संपदा पर कोई हक नहीं सेवायत को इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि मूर्ति कहां है,मूर्ति जहां जाती है सेवायत वहीं रहता है वो सिर्फ सेवा उपासना करता है मालिक नहीं होता,उनका कहना है कि सेवा उनका अधिकार है।
जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ ने कहा कि वे (निर्मोही) सेबियट के अधिकार की दुहाई देकर प्रबंधन और संभाल का अधिकार मांग रहे हैं क्योंकि प्रबंधन और प्रभार देवता के लिए है उनके सभी अधिकार देवता के हैं, जिसमें संपत्ति और उसकी रक्षा का अधिकार भी है।धवन ने कहा कि अब यहां ट्रस्टी और सेबियटशिप में फर्क होता है।वहां ट्रस्ट की अवधारणा है, लेकिन वह मालिक नहीं हैं सेबियटशिप में सिर्फ सेवा का अधिकार है।
धवन ने फिर दलील दी कि यहां इस मामले में मूर्ति को दूर नहीं ले जाया गया बस, स्थानांतरित कर दी गई।इसलिए वह कहते हैं कि हम सिर्फ पूजा उपासना करने का अधिकार चाहते हैं. इसीलिए ये बिलॉन्ग शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, मेरा अनुरोध है कि इसे शाब्दिक नहीं बल्कि पूरी याचिका के संदर्भ में देखा जाए।
सेबियट राइट यानी सेवायत के अधिकार के दावेदार निर्मोही अखाड़े का दावा है कि वो सनातन काल से यहां सेवा कर रह हैं।इसके लिखित रिकॉर्ड सन 1528 से मिलते हैं यानी तब से भी पहले से अखाड़े के वैष्णव बैरागी राम जन्मस्थान की सेवा में है, जबकि सुन्नी वक्फ बोर्ड 1961 में इस मुकदमे से जुडा। यानी निर्मोही अखाड़ा 1855 से ही इस मुकदमेबाजी से जुड़े होने की बात कर रहा है।
वकील राजीव धवन ने कहा कि निर्मोही अखाड़ा 1734 से अस्तित्व का दावा कर रहा है, लेकिन मैं कह सकता हूं कि निर्मोही अखाड़ा 1885 से बाहरी आंगन था और 1949 के 22 दिसंबर तक वहीं रहा क्योंकि राम चबूतरा बाहरी आंगन में है, जिसे राम जन्म स्थल के रूप में जाना जाता है,मस्जिद को लेकर ही तो झंझट था यानी उसे विवादित स्थल माना जाता है।
धवन ने निर्मोही अखाड़ के गवाहों के दर्ज बयानों पर जिरह करते हुए महंत भास्कर दास के बयान का हवाला देते हुए कहा कि उन्होंने माना था कि मूर्तियों को विवादित ढांचे में रखा गया था। इस दलील के साथ ही धवन ने तब के फैजाबाद के अधिकारियों यानी डीएम केके।
नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरु दत्त सिंह की 1949 की तस्वीरों का स्केच कोर्ट को दिखाया।धवन ने राजा राम पांडे और सत्य नारायण त्रिपाठी के बयान में विरोधभास के बारे में सुप्रीम कोर्ट को बताते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि कई गवाहों के बयान को प्रभावित भी किया गया था।
राजीव धवन ने अपनी दलील में कहा कि मंदिर की जमीन जबरदस्ती छीनी गई है।जस्टिस डीवाई चंद्रचूड ने कहा कि इन विरोधाभासों के बावजूद भी आप यह मान रहे हैं उन्होंने (निर्मोही अखाड़ा) अपना अधिकार स्थापित कर लिया हैं।इस पर धवन ने कहा कि मैं उनको झूठा नहीं कह रहा हूं, लेकिन मैं यह समझाना चाह रहा हूं कि वह खुद को सेबियट तो बता रहे हैं, लेकिन उनको नहीं मालूम की कब से सेवायत है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर आप निर्मोही अखाड़ा के अस्तित्व को मान रहे हैं तो उनके संपूर्ण साक्ष्य को स्वीकार किया जाएगा। राजीव धवन ने कहा कि कुछ कहते हैं कि 700 साल पहले कुछ उससे भी पहले का मानते हैं। मैं निर्मोही अखाड़ा की उपस्थिति 1855 से मानता हूं,1885 में महंत रघुबर दास ने मुकदमा दायर किया, हम 22-23 दिसंबर 1949 के बयान पर बात कर रहे हैं।