लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷दुनिया भर में अंग्रेजी भाषा के पसरते पाँव व मिल रहे संरक्षण ने विश्व में बोली जाने वाली उन सैकड़ों लोक भाषाओं के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है,जो सदियों से बोली जाती रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में चौंकाने वाला तथ्य यह है कि विलुप्त हो रही भाषाओं में भारत के 196 भाषाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।गत वर्ष पहले”भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर” द्वारा किए गए “भारतीय भाषाओं के लोकसंरक्षण” की रिपोर्ट से उजागर हुआ है कि विगत 50 वर्षों में भारत में बोली जाने वाली 850 भाषाओं में तकरीबन 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। इनमें भी 130 से अधिक भाषाओं का अस्तित्व तो पूरी तरह खतरे में है। इस शोध में कहा गया है कि असम की 55 उड़ीसा के 47 त्रिपुरा की 10 महाराष्ट्र एवं गुजरात की 50 मेघालय की 31 मणिपुर की 28 नागालैंड की 17 और त्रिपुरा की 10 भाषाएं मरने यानी खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। इन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है।उदाहरण के तौर पर सिक्किम में माझी भाषा बोलने वालों की संख्या 4 रह गई है। इसी तरह कई अन्य लोक भाषाओं के बोलने वालों की तादाद उंगली पर रह गई है। गौर करें तो यह लोक भाषाओं के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती है, क्योंकि भारत भाषाई विविधता से समृद्ध देश है और लोक भाषाएं लोक संस्कृत का प्रतिनिधित्व करती हैं। ऐसे में उनका संरक्षण और भी अधिक जरूरी हो जाता है ,लेकिन विडंबना है कि भाषाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ने के बजाय उदासीनता ज्यादा है।गौर करें तो भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी लोक भाषाएं तेजी से विलुप्त हो रही हैं। पिछले दिनों मेक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापने के विलुप्त होने की खबरें अच्छी खासी चर्चा में रही।सुन जानकर आश्चर्य लगा कि आपनेको भाषा को जानने और बोलने वालों की संख्या विश्व में महज 2 रह गई हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन सिर्फ दो लोगों ने भी ठान लिया कि वह आपस में इस भाषा के जरिए वार्तालाप नहीं करेंगे। मतलब साफ है कि अयापनेको भाषा का अस्तित्व मिटने जा रहा है। विश्व की हर भाषा की अपनी ऐतिहासिकता और गरिमा होती है। प्रत्येक समाज अपनी भाषा पर गर्व करता है ,अयापनेको भाषा का भी अपना एक विलक्षण इतिहास रहा है।इस भाषा को मेक्सिको पर स्पेनिश विजय का गवाह माना जाता है, लेकिन विडम्बना है कि जिस अया पनेको भाषा को युद्ध,क्रांतियां,सूखा व बाढ़ नहीं लील पाया वह आज अपने ही लोगों की संवेदनहीनता के कारण अस्तित्व के दौर से गुजरने को मजबूर है। इन सबके बीच सुखद बातें है कि इंडियाना विश्वविद्यालय के भाषाई नृविज्ञान है अयापनेको भाषा का शब्दकोश बना कर उसे विलुप्त होने से बचाने की जुगत कर रहे हैं।पर देखा जाए तो भाषाओ के विलुप्त होने की समस्या सिर्फ अयापनेको तक ही सीमित नहीं है।विश्व के तमाम देशों में बोली जाने वाली य स्थानीय भाषा भी दम तोड़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 भाषाएं बोली जाती हैं,इनमें से 2500 से अधिक भाषाओं के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। नतीजा इन्हें भाषाओं की चिंताजनक स्थिति वाली “भाषाओं” की चिंताजनक सूची में रखने के लिए मजबूर होना पड़ा है।त्रासदी यह है कि विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाने के प्रयास के बावजूद भी इन्हें बोलने और लिखने पढ़ने वालों लोगों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में विलुप्त प्रायः हम भाषाओं की संख्या जो 900 के आसपास थी वह आज बढ़कर 3 गुने पर पहुंच चुकी है।अगर आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो दुनिया भर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने लिखने वाले लोगों की संख्या 1 दर्जन से भी कम रह गई है।यूक्रेन में बोली जाने वाली कैरम भी इन्हीं भाषाओं में से एक है जिन्हें बोलने वालों की संख्या महज छह बची है। इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भाषा बोलने वालों की संख्या 10 और इंडोनेशिया में लैंगिलू बोलने वालों की संख्या सिर्फ़ चार रह गई है।इसी तरह विश्व में 178 ऐसी भाषाएं हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या डेढ़ सैकड़ा तक है, किंतु दुर्भाग्य है कि भाषाई विविधता को बचाने का कोई ठोस पहल नहीं हो पा रहा है।भारत के अलावा अमेरिका और इंडोनेशिया में भी भाषाई विविधता के संरक्षण की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हालांकि इन देशों द्वारा कहा जा रहा है कि भाषाई विविधता के संरक्षण के लिए सकारात्मक पहल हो रहा है ,लेकिन जिस तरह के आंकड़े नजर आ रहे हैं उस लिहाज से साफ है कि विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाने की दिशा में सार्थक प्रयास नहीं हो रहा है।यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन भाषाओं के अस्तित्व पर सबसे ज्यादा संकट मंडरा रहा है और सर्वाधिक रूप से उन जनजाति समूहों के बीच बोली जाती है जो आज की तारीख में कई तरह के संकटों से गुजर रहे हैं।सबसे बड़ा संकट इनके जीवन की सुरक्षा को लेकर है।अमेरिका हो या भारत हर जगह विकास के नाम पर जंगलों को उजाड़ा जा रहा है। अपनी सुरक्षा और रोजी रोजगार के लिए जनजातीय समूह के लोग अपने मूल स्थान से पलायन कर रहे हैं,दूसरे समूह में जाने और रहने के कारण उनकी भाषा प्रभावित हो रही है। यही नहीं उन्हें मजबूरन दूसरी भाषाओं को अपनाना पड़ रहा है ,इसके अलावा रोजी रोजगार का संकट, भारी हस्तक्षेप और धर्म परिवर्तन इत्यादि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से उनकी कालजयी संस्कृति और भाषा समाप्त हो रही है। दूसरा विश्व में अंग्रेजी भाषा का बढ़ता प्रभाव और उसका रोजगार से जुड़ा होना भी इन भाषाओं के अस्तित्व के लिए चुनौती है। स्वभाविक है कि जब कोई भाषा रोजगार देने में सहायक सिद्ध होगी तो उसे अपनाने में, बोलने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। साथ ही छिटपुट स्तर पर बोली जाने वाली भाषाएं भी मरेंगी।अगर अंग्रेजी भाषा अपने सारगर्भित उपयोगिता से स्थानीय भाषाओं के विलुप्ति का कारण बन रही हैं तो इस बात पर विचार करना होगा कि फिर क्यों ना क्षेत्रीय भाषाओं को रोजगार परक बनाया जाए?
यह एक तथ्य है कि विश्व के अधिकांश हिस्सों में बोली जाने वाली अंग्रेजी भाषा न सिर्फ़ अंतर्राष्ट्रीय भाषा का रूप धारण कर चुकी है बल्कि बड़े पैमाने पर रोजगार भी उपलब्ध करा रही है। इन परिस्थितियों के बीच अगर अंग्रेजी भाषा के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है और स्थानीय भाषाए दम तोड़ रही हैं तो यह बिल्कुल ही अचरज पूर्ण नहीं है। भारत की ही बात करें तो विगत एक दशक के दरमियान हिंदी ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय मातृभाषा को लेकर लोगों में अभिरुचि घटी है। सबसे अधिक गिरावट केरल और पंजाब में दर्ज की गई हैं। इन दोनों राज्यों में तकरीबन 40 फीसद की गिरावट आई है।केरल में मलयालम माध्यमिक स्कूलों में मलयालम पढ़ने वाले 90 फ़ीसद छात्रों की तादाद घटकर 50 फीसद रह गई है।इसी तरह पंजाबी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की तादाद 99 फ़ीसद से घटकर 59 फीसद पर आ गई है। जम्मू कश्मीर में पढ़ने वाला छात्र अंग्रेजी माध्यम स्कूल में नामांकन लिया है।इसी तरह पूर्ण साक्षर राज्य केरल व दिल्ली में क़रीब 50 फ़ीसद छात्र अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसका सीधा तात्पर्य है यह कि आज की तारीख में अंग्रेजी भाषा रोजगारपरक बन गई है,जिसके प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। ध्यान दें तो क्षेत्रीय भाषाओं के विलुप्त होने के और भी बहुतेरे कारण है जिसका पड़ताल किया जाना आवश्यक है। उचित होगा कि विलुप्त हो रहे भाषाओं को बचाने के लिए सरकार एवं सामाजिक संस्था आगे आये और उन्हें बोलने वाले लोगों को प्रोत्साहित करें।साथ ही संवैधानिक संरक्षण प्रदान करके उन्हें रोजगार से जोड़े। अगर यह समझा जायेगा कि इन भाषाओं को सिर्फ़ शब्दकोषों तक सीमित रखने मात्र से ही उन्हें संरक्षण मिल जाएगा तो फिर दो राय नहीं कि उन्हें इतिहास के गर्त में समाने से कोई नहीं रोक सकता।

÷लेखक स्वतन्त्र टिप्पणीकार व वरिष्ठ पत्रकार हैं÷