लेखक~अरविंद जयतिलक
जोसेफ़ बाइडन कह चुके हैं कि चीन के राष्ट्रपति हैं उनके मित्र,डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों ने पाकिस्तान को भारत के समकक्ष रख पूर्व में किया है व्यवहार
♂÷रूस के साथ S-400 एयर डिफेंस मिसाइल प्रणाली सौदे को लेकर एक बार फिर अमेरिका की भृकुटि तन गई है। अमेरिकी कांग्रेस स्वतंत्र विंग कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस CRS ने सौदे से संबंधित अपनी रिपोर्ट में कहा कि अरबों डॉलर के सौदे के कारण भारत पर अमेरिका के शत्रु विरोध प्रतिबंध कानून के तहत कई तरह के प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।गौर करें तो अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत के प्रति उसका कड़ा रुख कई निहितार्थ को समेटे हुए है,ऐसा प्रतीत होता है मानो अमेरिका भारत से रिश्ते को नए सिरे से परिभाषित करना चाहता है।गौर करें तो 2018 में भी इस सौदे को लेकर डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने भारत पर कई प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी थी तब अमेरिकी समकक्ष माइक पॉम्पियो के साथ द्विपक्षीय वार्ता के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने S-400 को लेकर काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थूर सैंक्शन एक्ट यानी काटमा के तहत प्रतिबंधों के सवाल पर भारत का नजरिया स्पष्ट कर दिया था लेकिन इस समझौते पर अमेरिका का कड़ा रुख अख्तियार करना एक किस्म से भारत को आगाह करना है कि रूस से ज्यादा निकटता उसके साथ संबंधों में दूरी पैदा कर सकता है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने रूस पर काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सस थ्रू सैंक्शन एक्ट लगा रखा है।अब सवाल यह है कि क्या इस समझौते से नाराज अमेरिका,भारत से अपने रिश्ते को परिभाषित करना चाहता है। क्या नए राष्ट्रपति जो बाइडन अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप की नीति पर चलने की जगह बराक ओबामा और बिल क्लिंटन की नीतियों की तर्ज पर भारत से रिश्ता चाहते हैं।अगर ऐसा हुआ तो फिर अमेरिका द्वारा न सिर्फ़ रूस की घेराबंदी तेज की जाएगी बल्कि अगर भारत के रूस से निकटता बढ़ती है तो अमेरिका का भारत पर भी भवें तननी तय है।दरअसल अमेरिका जानता है कि पुतिन 1991 में सोवियत नियंत्रण से मुक्त हुए देशों में परोक्ष रूप से अपना वर्चस्व स्थापित कर एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर नई विश्व व्यवस्था में अपनी जगह बनाना है।यह तभी संभव होगा भारत जैसे देश उसके उत्पादों के खरीदार बनेंगे। याद होगा पुतिन ने मई 2000 में शपथ लेते हुए अमेरिका के विरोध के बावजूद भी पृथकतावादी चेचन्या के खिलाफ कठोर कदम उठाए थे तब के अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने मानवाधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उसकी घेराबन्दी तेज की जायेगी।पुतिन ने जुलाई 2000 में अमेरिका की प्रस्तावित राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली तथा पूर्वी एशिया में प्रस्तावित थिएटर प्रक्षेपास्त्र प्रणाली का भी कड़ा विरोध किया था उन्होंने साफ कहा था कि अगर अमेरिका पूर्वी यूरोप में मिसाइल शील्ड लगाने की अपनी ज़िद पर कायम रहा तो वह भी अपनी नई सुपर मिसाइलों को यूरोप में किसी टारगेट पर खींच लेंगे। पुतिन ने 2007 के म्यूनिख में एक सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिका पर हमला बोलते हुए कहा था कि अमेरिकी नीतियों से पूरा विश्व असुरक्षित है।गौरतलब है कि 26 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस की ताकत घटी है और अमेरिका का वर्चस्व बड़ा है, लेकिन इसका तात्पर्य भी नहीं है कि रूस अपननी प्रतिष्ठा ताकत को इस कदर खो चुका है कि अमेरिका जब चाहे उसे घुटनों पर ला दे। सच तो यह है कि आज भी रूस को संयुक्त राज्य सुरक्षा परिषद में पुराने सोवियत संघ का दर्जा प्राप्त है और वह सोवियत संघ के संपूर्ण अंतरराष्ट्रीय उत्तर दायित्व का निर्वहन कर रहा है। आज भी उसकी इच्छा है कि 1991 में सोवियत नियंत्रण से मुक्त हुए देशों में अमेरिका की पकड़ मजबूत ना हो और हाल में स्वतंत्र देशों में अप्रत्यक्ष रूप से उसका शासन बना रहे।रूस की यह नीति अमेरिका से टकराव की स्थिति उत्पन्न करती है इसलिए अमेरिका नहीं चाहता है कि भारत जैसे देश उसके रक्षा उत्पादों को खरीद कर उसे आर्थिक रूप से मजबूत करें।दूसरी ओर अमेरिका पुतिन के नेतृत्व में गठित शंघाई सहयोग संगठन और कैस्पियन नागरीय राष्ट्रों के मंच को लेकर भी खुन्नस में है।दरअसल इराक़, हैती, रवांडा कोसोवा,बोस्निया और अफगानिस्तान में अपनी सैन्य तानाशाही के प्रदर्शन के बाद इस धारणा पर आज भी कायम है कि उसके आगे कोई देश टिक नहीं सकता।यहाँ ध्यान देना होगा कि जिस अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और बराक ओबामा से रूस की ठनी हुई थी दोनों ही डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति थे। मौजूदा राष्ट्रपति जोसेफ़ बाइडन भी डेमोक्रेटिक पार्टी से हैं।ऐसे में साफ है कि अगर उसके प्रति नरमी बरतने वाले नहीं हैं। इन बदलती परिस्थितियों के बीच भारत के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह वैश्विक स्तर पर अपना कदम फूंक कर रखें,यह संभव है कि जो बाइडन चीन और अमेरिका को लेकर इस तरह का कड़ा रुख न अपनाये जिस तरह ट्रंप प्रशासन ने अपनाया था।अगर अमेरिका ने पाकिस्तान के प्रति नरमी दिखाई तो भारत की मुश्किलें बढ़नी तय हैं ,इसलिए कि अभी तक अमेरिका के डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के नजरिए से दक्षिण एशिया के संदर्भ में भारत और पाकिस्तान की समानता है सर्वप्रथम स्तंभ रहा है। उनकी इस नीति का मुख्य कारण यह है कि पाकिस्तान, भारत से सैन्य समानता पर बराबरी चाहता है और अमेरिका इसका पक्षधर रहा है। हालांकि भारत शुरू से ही अमेरिका की इस नीति का विरोध करता रहा है।वर्ष 1954 में राष्ट्रपति आइजनहावर ने पाकिस्तान को हथियार देने की पेशकश की,तब भारत ने कड़ा विरोध जताया था। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के संदर्भ में विरोधाभास पूर्ण नीतियों को अपनाने के कारण ही भारत अमेरिका के बीच दूरियां बढ़ी और आपसी विश्वास कायम नहीं हो सका। कश्मीर निशस्त्रीकरण जापान-कोरिया हिन्द-चीन मसलों पर भी अमेरिका के डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों का रवैया भारत के दृष्टिकोण के विपरीत रहा है। प्रारंभ में कश्मीर के मसले पर उसका रुख पाकिस्तान परस्त था, वही एक ओर भारत पर बार-बार एक विशेष संदर्भ में स्वीकृत जनमत संग्रह कराने की मांग पर बल देता रहा वहीं पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए हमले के बाद भी वह पाकिस्तान को आक्रमणकारी कहना गवारा नहीं समझा।यही नहीं जब बिल क्लिंटन अमेरिका के राष्ट्रपति थे तब कश्मीर के मसले पर उनका रुख पाकिस्तान परस्त रहा।सितंबर 1993 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर की तुलना बोस्निया व सोमालिया से की थी। तब अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ देते हुए कश्मीर के विलय पर भी सवाल उठाया व शिमला समझौते के अस्तित्व पर भी सवाल भी सवाल खड़े किये थे। 11 एवं 13 मई 1998 की जब अटल बिहारी वाजपेई कि सरकार ने सफल परमाणु परीक्षण करके आणविक शक्ति बनने के अपने उद्देश्य को प्रकट किया,तब अमेरिका की भौहें तन गई। राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लाद दिए।अमेरिका पाकिस्तान के कितना निकट है इसे इसी से समझा जा सकता है कि जब मई 1965 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अमेरिकी डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति जॉनसन के निमंत्रण पर वहां की यात्रा का कार्यक्रम बनाए तो उसी समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने भी यात्रा का कार्यक्रम बनाया।इस स्थिति में अमेरिका ने भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से निमंत्रण वापस ले लिया।जब भारत ने इस कार्रवाई का विरोध किया तो मजबूरन उसे अयूब खान का भी दौरा रद्द करना पड़ा।बदलते परिस्थितियों के बीच अगर भारत का झुकाव रूस के प्रति बढ़ता है तो संभव है कि अमेरिका पाकिस्तान को दुलारना शुरू कर दें।जहां तक चीन को लेकर अमेरिकी रुख का सवाल है तो जब भी अमेरिका में डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति हुए हैं चीन से उसका संबंध मधुर रहा रहा है।अमेरिकी चुनाव से पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन भी कह चुके हैं कि चीनी राष्ट्रपति उनके मित्र हैं, दोनों देश आपसी मतभेदों को सुलझा लेंगे।अगर ये मित्रता रंग लाती है तो प्रशांत महासागर में हलचल कम होगी और अमेरिका के लिए भारत सिर्फ़ बाज़ार के लिए उपयोगी होगा न की सैन्य रणनीति के लिए।
÷लेखक वरिष्ठ पत्रकार/स्तम्भकार व विदेशी मामलों के विशेषज्ञ हैं÷