लेखक -ओम लवानिया
यह फिल्म स्पष्ट संदेश देती है कि अजनबी देश के बारे में कोई भी जानकारी नहीं हो तो जिंदगी नरक यानी दोज़ख बन जाती है। ये शब्द इसी परिवेश के कंटेंट द केरला स्टोरी से सुना था यहाँ से सैकड़ों लड़कियाँ लापता की गई है।
कमाई का शार्ट कट, जानवर से भी बदतर हालात कर देता है। इस नरक के बाद नजीब भूले से भी दूसरे देश छोड़िये, अपने शहर से बाहर न गये होंगे। भय में गुजर-बसर रही होगी कि ऊँट पर बैठकर शेख तो लेने नहीं आ गया।
बेन्यामिन के उपन्यास आदुजीविथम के लिए लेखक-निर्देशक ब्लेसी ने वर्षों बिता दिए। ताकि इस दोज़ख को परफेक्ट और बिग स्केल पर बना सके। इसकी घोषणा 2010 में कर दी थी, वही लेखक ने अपना नोवेल 2008 में लिखा था। 2010 में ही पृथ्वीराज सुकुमारन फाइनल हो चले थे। हालाँकि पहले सूर्या से बातचीत हुई थी लेकिन व्यस्तता और प्रोजेक्ट के निर्माण में देरी भी वजह बनी। इसलिए पृथ्वीराज ही नजीब के लिये तय हुए।
नोवेल के इतर फ़िल्म के लिए कई अन्य रिसर्च की गई। चूँकि मलयालम इंडस्ट्री में 82 करोड़ बजट बहुत बड़ी बात थी, 2010 में तो वाकई बड़ी थी तो फ़िल्म के लिए निर्माता तलाशना भी टास्क था। कई उतार-चढ़ाव के बाद आख़िरकार फ़िल्म बनी और फ़िल्म फेस्टिवल के बाद दर्शकों के बीच पहुँची।
पृथ्वीराज सुकुमारन अहा, अद्भुत अभिनय प्रदर्शन और शानदार अभिनेता है। निस्संदेह फ़िल्म के दो मुख्य नायक है बेशक कहानी-स्क्रीन प्ले तो है ही, किंतु ब्लेसी और पृथ्वीराज माइंडब्लोइंग है।
नोवेल को अच्छे थ्रिलिंग स्क्रीन प्ले में कन्वर्ट किया और इमोशनल किसी भी मोमेंट पर छूटा नहीं है बल्कि टाइट रखा है। एडटिंग कमाल है, 2 घंटे 50 मिंट का स्क्रीन प्ले ग्रिप बनाकर रखता है, जबकि कहानी में ज्यादा किरदार नहीं है फिर भी इमोशनल और थ्रिल पीक पर रहता है।
पृथ्वीराज ने फ़िल्म के लिए क्या समर्पण किया है, घर वापसी की आहट में अरबी चोला उतारकर भारतीयता में आते है तब रॉंगटे खड़े करने वाला दृश्य है।
जब पृथ्वी भारतीयता को उतारकर अरबी चोला यानी गुलामी पहनते है बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन और हाव-भाव देखिए। फिल्म खत्म होने के बाद दिमाग में पृथ्वी आई मीन नजीब किरदार ही रहेगा। नरक को भोगने के लिए मलयालम अभिनेता ने काफी डीप स्टडी किया है। तभी तो अरबी द्वारा रोटी दी जाती तब कैसे लपकते है मानो, महीनों भूखे हो गए। इस अभिनेता के लिए स्टैंडिंग ओवेशन निकलेगा।
फ़िल्म को किसी भी पक्ष में देखो, बेहतरीन है।
मेकअप, कॉस्ट्यूम, वीएफएक्स, बीजीएम, साउंड डिज़ाइन, ज़ोरदार है। सोचिए निर्देशक ने प्रोडक्शन डिज़ाइन के लिए कितनी रिसर्च की होगी।
किसी चीज को लिखना ठीक है लेकिन सिनेमाई परिवेश में दर्शकों से कनेक्ट करवाना बिग डील।
मानवतावादी रक्षकों को फ़िल्म देखनी चाहिए, कि सचेत नहीं होने पर ऐसे नरक में फँस जाते है।
शानदार फ़िल्म है नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।
निर्देशक और पृथ्वी की मेहनत के लिए फ़िल्म देखें, रिपीटएबेल कंटेंट है। इसमें अकैडमी अवार्ड ऑफ़ मेरिट ऑस्कर जीतने का पूरा पोटेंशियल है। बेहतरीन सिनेमा की श्रेणी में शामिल होती फ़िल्म है।
मानवीय जीवन को संदेश देने वाली फ़िल्म है नजरअंदाज नहीं करें। अपना देश ही सबसे अच्छा है। गुलामी 1947 में छूत गई, स्वतंत्रता मिली है तो काहे दोबारा कमाई के शोर्ट कट में नरक बना लें।
(लेखक प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक हैं)