लेखक~ओमप्रकाश तिवारी
♂÷पिछले सप्ताह शरद पवार की ‘गुगली’ के बाद देवेंद्र फडणवीस ने उनका जो ‘अर्द्धसत्य’ उजागर किया था, उसका ‘पूर्णसत्य’ उनके भतीजे अजीत पवार ने अब सार्वजनिक कर दिया है। खास बात यह कि सीनियर पवार खेमे के पास जूनियर पवार के उद्घाटित किए गए तथ्यों का कोई उत्तर भी नहीं है। होता, तो वह कल ही दे चुके होते।
देवेंद्र फडणवीस और शरद पवार के बीच 2019 की कुछ घटनाओं को लेकर लंबे समय से तकरार चलती आ रही थी। संभवतः राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और सामाजिक मर्यादाओं के चलते फडणवीस ने कभी अपनी ओर से उन घटनाओं को सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं समझी। लेकिन शरद पवार खुद ही शब्र नहीं रख पाए और खुद को देश की राजनीति का सबसे बड़ा ‘गुगली मास्टर’ समझने लगे। लिहाजा सामनेवाले को भी उन्हीं की भाषा में बैटिंग शुरू करनी पड़ी और पवार की पार्टी टूट गई।
मामला दरअसल भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के राजनीतिक रिश्तों और महाराष्ट्र के नेताओं की राजनीतिक जरूरतों को लेकर है। राकांपा ने भाजपा के साथ रिश्ते तो 2014 में ही जोड़ लिए थे। भाजपा की अल्पमत सरकार को बाहर से समर्थन देकर। उस समय राकांपा ताजा-ताजा 15 साल की सत्ता से बेदखल हुई थी। उसके नेताओं-विधायकों को सत्ता की आदत लग चुकी थी। शरद पवार और उनके समर्थक लंबे समय तक कभी सत्ता से बाहर नहीं रहे, इसलिए उनके समर्थकों को लगता था कि भाजपा को समर्थन देना ही है, तो बाहर से क्यों ? सरकार में शामिल होकर क्यों नहीं। जिससे सत्ता के सारे लाभ भी लिए जा सकें। लेकिन उस समय केंद्र में भाजपा की नई-नई सरकार आई थी। पवार को यह उम्मीद कतई नहीं थी कि ये सरकार अपने पांव जमा लेगी। वह अपनी सेक्युलर पहचान खोना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने सरकार का हिस्सा बनने से मना कर दिया । बता दें कि उस समय भी शरद पवार को भाजपा से जोड़ने का काम देश के उसी बड़े उद्योगपति ने किया था, जिसका उल्लेख बुधवार को अजीत पवार ने 2019 के घटनाक्रम में किया। अजीत पवार ने साफ कहा कि 2019 में महाविकास आघाड़ी के गठन के दौरान ही देश के एक बड़े उद्योगपति के घर पर शरद पवार और भाजपा की पांच बैठकें हुई थीं। इन बैठकों में तय हो गया था कि महाराष्ट्र में भाजपा और राकांपा की ही सरकार बनेगी। इस सरकार की आगे की शर्तें तय करने की जिम्मेदारी अजीत पवार एवं भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को निभानी थी। लेकिन शरद पवार अचानक पलटी मार गए, और अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री की शपथ लेकर भी इस्तीफा देना पड़ा। इसी घटना को शरद पवार अपनी ‘गुगली’ का करिश्मा बताते नहीं थकते।
लेकिन भाजपा नेताओं ने कभी अपनी ओर से किसी उद्योगपति के घर पर हुई 2019 की बैठकों का जिक्र नहीं किया। जिक्र आया भी, तो शरद पवार के भतीजे अजीत पवार की ओर से । जिससे यह साफ हो गया कि इच्छुक तो शरद पवार भी थे भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए। लेकिन संभवतः उन्हें लगता था कि भाजपा के साथ जाकर वह उतनी दबंगई से काम नहीं कर पाएंगे, जितनी दबंगई से महाविकास आघाड़ी बनाकर उद्धव ठाकरे के नेतृत्त्व में कर सकते हैं। यही कारण है कि उस समय उन्होंने फडणवीस के बजाय उद्धव का साथ देने का निर्णय किया। जिसके नतीजे गृहमंत्री अनिल देशमुख के ‘वसूली अभियान’ एवं ‘अंटीलिया कांड’ के रूप में सामने आए। इसका नुकसान महाराष्ट्र को भी उठाना पड़ा। इसका जिक्र शरद पवार स्वयं अपनी पुस्तक में यह कहकर कर चुके हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे ढाई साल में सिर्फ दो बार मंत्रालय गए, जिसका नुकसान महाविकास आघाड़ी सरकार को हुआ।
यह नुकसान सिर्फ महाविकास आघाड़ी सरकार को ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र को हुआ है। न जाने कितने विकास कार्यों पर अर्द्धविराम या पूर्णविराम लग गया। राज्य में हो रहे इस नुकसान का अहसास सभी चुने हुए जनप्रतिनिधि महसूस कर रहे थे। क्योंकि पांच साल बाद उन्हें ही जनता के सामने जाकर वोट मांगना था। यह वोट पूरे राज्य में उद्धव ठाकरे के नाम या चेहरे पर मांगा नहीं जा सकता था। उद्धव ठाकरे खुद प्रधानमंत्री मोदी के जिस चेहरे का उपयोग कर लोकसभा सीटों की अप्रत्याशित 18 की संख्या तक पहुंचे, उसे वह अपने कार्य-व्यवहार से दूर कर चुके थे। इसलिए उनकी पार्टी के ज्यादातर सांसदों-विधायकों ने उनका साथ छोड़ दिया। करीब साल भर बाद अब वही स्थिति शरद पवार की राकांपा के साथ भी आई। उनकी भी पार्टी के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को लगने लगा था कि यदि वे अपने नेता शरद पवार की बात मानते रहे, तो उन्हें लंबे समय तक सत्ता से दूर रहना पड़ेगा। क्योंकि पार्टी की आंतरिक बैठकों में खुद शरद पवार मानते रहे हैं कि 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। और यदि 2024 में मोदी का विकल्प नहीं है, तो चार-छह माह बाद ही होनेवाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी इस बार महाविकास आघाड़ी वाली काठ की हांडी नहीं चढ़नेवाली। शिंदे-फडणवीस का मिला-जुला संख्या बल सत्ता में आने लायक सीटें तो आसानी से जुटा लेगा। यही कारण है कि इस बार उनके भतीजे ने ही बगावत का बिगुल बजाते हुए पार्टी को दोफाड़ कर दिया।
अब सवाल उठता है कि शरद पवार क्यों बार-बार भाजपा के साथ जाने का मन बनाकर भी पीछे हटते रहे ? इसका सीधा कारण है कि वह अभी भी अपना व्यक्तिगत भविष्य कथित विपक्षी एकता में देख रहे हैं। भाजपा के साथ उनके भतीजे या बेटी का तो भविष्य हो सकता है, लेकिन मोदी-शाह के नेतृत्व में उनका खुद का कोई भविष्य नहीं है। वह आज भी बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने की स्थिति में देवेगौड़ा या गुजराल की तरह प्रधानमंत्री बनने या स्वास्थ्य ठीक रहा तो करीब चार साल बाद राष्ट्रपति बनने का स्वप्न देख रहे हैं। यह स्वप्न कब चरितार्थ होगा, कहा नहीं जा सकता।
÷लेखक दैनिक जागरण महाराष्ट्र ब्यूरो इन चीफ़ हैं÷
साभार दैनिक जागरण