लेखक~संजय राय
♂÷अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के साथ भारत के सामने एक नयी चुनौती खड़ी हो गयी है। यह चुनौती दो तरह की है। पहली चुनौती है अफगानिस्तान के साथ संबंधों को अब किस दिशा में मोड़ा जाये। दूसरी चुनौती यह है कि तालिबान, पाकिस्तान और चीन के गठजोड़ से आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर सहित आंतरिक सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे से कैसे निबटा जाये।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बीच पिछले कुछ दिनों के दौरान जिस तेजी से घटनाक्रम बदले हैं, उनपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अमेरिका ने 11 अगस्त को कहा था कि काबुल पर तालिबान 90 दिन के भीतर कब्जा कर लेगा, लेकिन केवल चार दिन बाद ही 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया। 15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस है। दुनिया के सबसे लोकतंत्र के स्वतंत्रता दिवस के दि नही पड़ोस में एक कट्टर जेहादी मानसिकता वाले पाकिस्तान समर्थित संगठन का सत्तासीन होना महज संयोग नहीं हो सकता है। यह आने वाले समय में भारत पर आने वाले संकट का संकेत है।

बीस साल तक अफगानिस्तान में रहने के बाद अमेरिका का आकलन इतना गलत होगा, यह बात कुछ हजम नहीं हो पा रही है। लगता है अमेरिका की तरफ से जान-बूझकर गलत आकलन किया गया। उसने ऐसा क्यों किया, इसका जवाब कुछ वर्ष बाद बाद ही मिल सकता है। 15 अगस्त से एक दिन पहले ही भारत ने यह घोषणा कर दी कि अब से 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में मनायेगा। अभी तक भारत सरकार 14 अगस्त को पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस की बधाई देती आ रही थी। अफगानिस्तान में पाकिस्तान के नापाक खेल को भारत अच्छी तरह समझ रहा है। भारत के प्रति उसके नापाक खेल के इतिहास और उसकी भावी रणनीति को भांपने के बाद शायद सरकार ने यह निर्णय लिया है। दुश्मन के साथ दुश्मन की तरह पेश आने और उसे साफ संदेश देने की भारत की यह नयी नयी नीति बिलकुल सही है। भारत की तरफ से विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने का मतलब यह है कि अब पाकिस्तान को बधाई देने का सिलसिला बंद कर दिया है। सरकार ने 15 अगस्त के दिन इस दिवस के मनाने की घोषणा वाला एक सरकारी आदेश भी जारी कर दिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को दिये गये अपने संबोधन में भी इसकी घोषणा कर दी।
बात करते हैं अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे की। तालिबान और अमेरिका के साथ कतर की राजधानी दोहा में चली लंबी वार्ता के बाद यह तय हुआ था कि अमेरिका 11 सिंतबर, 2021 तक हर हाल में अफगानिस्तान की जमीन से अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा। तालिबान की तरफ से अब यह समय-सीमा 31 अगस्त कर दी गयी है और 31 अगस्त, 2021 तक देश न छोड़ने पर अंजाम भुगतने की चेतावनी भी दी गयी है। तालिबान और अमेरिका के बीच वार्ता की शुरुआत उस समय हुई थी, जब डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति थे। उनके बाद राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इसे जारी रखने का निर्णय लिया।
तालिबान को अमेरिका ने पाकिस्तान के सहारे पैदा किया है यह तथ्य किसी से नहीं छिपा है। यह बात भी सब जानते हैं कि 2001 में 9/11 की घटना के बाद पाकिस्तान के सहारे ही अमेरिका ने तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता से बेदखल किया था। पाकिस्तान को मजबूरी में अमेरिका साथ देना पड़ा था। अफगानिस्तान पर हवाई हमले के लिये उसने अमेरिका को अपनी जमीन का इस्तेमाल करने की भी अनुमति दी थी। अलकायदा और तालिबान के लोगों को अमेरिकी सैनिकों के हाथों मरवाया और बदले में उसने झूठ बोलकर अमेरिका से खूब डॉलर कमाये। अब जब अमेरिका अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान को सौपकर वापस लौट रहा है तो पाकिस्तान इसका स्वागत कर रहा है और यह भी कह रहा है कि अफगानिस्तान को अब असली आजादी मिली है।
जब तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा कर रहा था, तो वहां की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार चिल्ला-चिल्लाकर दुनिया से कह रही थी कि पाकिस्तान तालिबान के वेश में अपने सैनिकों को उसके देश में हथियारों के साथ भेज रहा है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और उप राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने खुलेआम आरोप लगाया कि पाकिस्तान ने दस हजार सैनिक उनके देश में भेजे हैं। ये सभी तालिबान की वर्दी में भेजे गये थे। जानकारों की मानें तो यह संख्या 30-35 हजार है। इनको स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि भारत द्वारा बनाये गये जितने भी बुनियादी ढांचे मिलें उन्हें नष्ट करना है। वे यह काम बखूबी कर रहे हैं और पाकिस्तान इस बात की खुशी मना रहा है कि अफगानिस्तान में भारत का तीन बिलियन डॉलर का निवेश डूब गया।
तालिबान के अफगास्तिान पर काबिज होने के बाद वहां लगातार बिगड़ते जा रहे जंगी हालात के बीच अन्य साझीदारों जैसे कि, रूस, चीन और ईरान की भूमिका अहम होने वाली है। इनमें से दो वीटो पावर वाले देश हैं। यह भी गौर करने वाली बात है कि अमेरिका से ये सभी देश बुरी तरह चिढ़ते हैं। ये तीनों देश अपने-अपने हितों के मद्देनजर अफगानिस्तान में अपनी भूमिका निभाने के इंतजार में हैं। पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान मुद्दे पर अपना प्रभाव बढ़ाने में जुटा हुआ है। चाहे तालिबान से संबंध बढ़ाना हो, जिसकी शुरुआत कई बरस पहले हुई थी, या फिर शांति वार्ता के तीन प्रमुख पक्षों या अन्य पक्षों के साथ संवाद करना हो, या फिर अपनी मेज़बानी में शांति वार्ता आयोजित करना हो, पूर्व महाशक्ति रूस ने अपनी उपस्थिति का दायरा बढ़ाया है।
वास्तविकता यह है कि आपस में रिश्ते भले ही खराब हो रहे हैं, लेकिन इस बीच, अफगानिस्तान के हालात पर अमेरिका और रूस लगातार आपस में सलाह-मशविरा करते रहे हैं। दोनों ही देश, अफ़ग़ानिस्तान में अमन बहाली के लिए सभी पक्षों के बीच बातचीत की वकालत करते हैं। इनमें अफगान सरकार, राजनीतिक नेता, तालिबान, सामाजिक समूह को वार्ता का हिस्सा बनाना शामिल है। अफगानिस्तान में शांति का कोई भी समझौता रूस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक स्थिर अफगानिस्तान में ही रूस के सामरिक और सुरक्षा संबंधी हित सुरक्षित रह सकते हैं।
साझा सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) के भागीदार के तौर पर रूस की कई ज़िम्मेदारियां बनती हैं और अफगानिस्तान में बढ़ती हिंसा से रूस को इस बात की चिंता है कि कहीं यह मध्य एशिया के देशों और ख़ुद उसके अपने इलाके तक न फैल जाये। शरणार्थियों की आमद से जुड़े मसले, ड्रग की तस्करी और कट्टरवाद के विस्तार जैसी अफगानिस्तान से जुड़ी रूस की कई अन्य चिंताएं भी हैं। इस्लामिक स्टेट का ख़तरा रूस की सबसे बड़ी चिंता है। रूस के रक्षा मंत्री सर्जेई शोइगू पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि सीरिया, लीबिया और दूसरे देशों से इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी अफगानिस्तान पहुंच रहे हैं। इस चुनौती को देखते हुए रूस ने ताजिकिस्तान में अपने सैनिक अड्डे की ताकत को और बढ़ाया है।
रूस ने हाल ही में अफगानिस्तान की सीमा के पास उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ साझा युद्धाभ्यास किया था। इसके अलावा चीन के उत्तर पश्चिमी इलाके में भी रूस और चीन की सेनाओं ने युद्धाभ्यास किया है। ये इलाका चीन के उस शिंजियांग सूबे के पूरब में है, जिसकी थोड़ी सी सीमा अफगानिस्तान से लगती है। रूस ने अफगानिस्तान के पश्तूनों के साथ भी अपने संपर्क बढ़ाए हैं। जबकि, पहले रूस मुख्य रूप से उज़्बेक और ताजिक समुदायों के साथ ही नजदीकी रखता था।
माना जा रहा है कि रूस ये कदम इसलिए उठा रहा है कि अगर कोई एक पक्ष कमजोर होता है तो भी अफगानिस्तान में उसका प्रभाव और हित सुरक्षित रहें। इन नीतियों के चलते रूस की पाकिस्तान से भी नज़दीकी बढ़ी है, क्योंकि ख़ुद पाकिस्तान के खड़े किये गये तालिबान पर उसका बहुत गहरा असर है। इसके अलावा रूस ने अन्य क्षेत्रीय ताकतों जैसे कि चीन और ईरान से भी अफगानिस्तान पर संवाद बढ़ाया है।
वास्तव में, अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी ने रूस और चीन दोनों के लिए चुनौती बढ़ा दी है। अब दोनों के सामने हालात पर काबू पाने का असल ‘इम्तिहान’ है। रूस और अमेरिका के बीच चल रहे मौजूदा तनाव के बीच, अफगानिस्तान के बिगड़ते हालात ने रूस को मौका दे दिया है कि वह विश्व की अग्रणी ताकत के तौर पर अमेरिका की भूमिका पर सवाल उठाये, क्योंकि रूस का कहना है कि अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान में अपने मिशन में नाकाम रहा। लेकिन, अमेरिका द्वारा अपनी सेना वापस बुला लेने से अनिश्चितता बढ़ गई है। हालांकि रूस ये तो कभी नहीं चाहता था कि अफगानिस्तान में स्थायी तौर पर पश्चिमी देशों की सेनाएं तैनात रहें, क्योंकि इससे रूस के अपने प्रभाव पर नकारात्मक असर पड़ता था।
भारत हमेशा इस बात पर जोर देता रहा है कि वो अफगानिस्तान की वाजिब तरीके से चुनी गई सरकार से ही आधिकारिक रूप से बातचीत करेगा। जबकि, अफगानिस्तान में अपना हित देखने वाले अन्य देश तालिबान से सीधे संवाद कर रहे हैं। तालिबान के प्रति भारत का यह रुख इसलिए समझ में आता है कि उसने तालिबान प्रभावित इलाक़ों में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों के जरिये सीमापार से आतंकवाद का सामना किया है।
ऐसे में तेजी से बदलते अफगानिस्तान के हालात में भारत के विकल्प बहुत सीमित नजर आते हैं। तालिबान के सैन्य ताकत के बल पर सत्ता पर काबिज होने के बजाय भारत, अफगान सरकार और तालिबान के बीच एक राजनीतिक समझौते को तरजीह देना चाहेगा। भारत के नीतिगत विकल्पों का दायरा बढ़ाने और हित सुरक्षित रखने के लिए, ये कहा जाता रहा है कि भारत के पास दोस्ताना क्षेत्रीय ताकतों के साथ संवाद करने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है। इसके अलावा वो पर्दे के पीछे से तमाम अफगान समूहों के साथ बातचीत कर सकता है।
अफगानिस्तान के तमाम पक्षों के साथ भारत का संवाद बढ़ाने में रूस काफी मददगार साबित हो सकता है। रूस की तरह भारत भी अफगानिस्तान से कट्टरपंथ और आतंकवाद के विस्तार के खतरे को लेकर चिंतित है और वह अफगानिस्तान में इस्लामिक सरकार की स्थापना के पक्ष में नहीं है। भारत के विदेशमंत्री एस. जयशंकर का कहना है कि रूस और भारत को मिलकर काम करना होगा ताकि, अफगानिस्तान में पिछले वर्षों के दौरान जो ‘आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक प्रगति’ हुई है, उसे बचाकर रखा जा सके। इस्लामिक स्टेट के खतरे को लेकर भी रूस और भारत के विचार एक जैसे हैं। अफगानिस्तान में राजनीतिक संवाद के जरिये स्थिरता कायम होने से दोनों ही देशों का फायदा होगा। अगर ऐसा होता है तो इसका रूस और भारत के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाने की योजनाओं पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा।
अफगानिस्तान के मसले पर आपस में बातचीत करने के अलावा रूस और भारत, दूसरे बहुपक्षीय मंचों जैसे कि शंघाई सहयोग संगठन के जरिये भी अफगानिस्तान में आपसी सहयोग को बढ़ा सकते हैं। चूंकि, मध्य एशिया के देश, एक अस्थिर अफगानिस्तान से पैदा होने वाले सुरक्षा के हालात को लेकर चिंतित हैं, तो शंघाई सहयोग संगठन, इस मुद्दे पर सभी देशों के बीच सहयोग का उपयोगी जरिया बन सकता है।
रूस की तरह भारत भी अफगानिस्तान से कट्टरपंथ और आतंकवाद के विस्तार के ख़तरे को लेकर चिंतित है और वह अफगानिस्तान में इस्लामिक सरकार की स्थापना के पक्ष में नहीं है। शंघाई सहयोग संगठन और अफगानिस्तान कॉन्टैक्ट ग्रुप, क्षेत्रीय देशों और अफगान सरकार को सुरक्षा के मसले पर सीधे सहयोग करने का मंच मुहैया कराता है। भारत की रणनीति के लिए लिहाज से ये बहुत अहम है। कट्टरपंथ और आतंकवाद का विस्तार एक साझा चिंता है। इस मंच पर सभी देशों की साझा चिंता के मसलों को क्षेत्रीय आतंकवाद निरोधक संरचना (आरएटीएस) के जरिये हल करने की कोशिश की जा सकती है।
हालांकि, यह तो साफ है कि अफगानिस्तान को लेकर भारत का नजरिया हमेशा अन्य देशों से नहीं मिलने वाला है। लेकिन, भारत को सुरक्षा का एक सीमित एजेंडा तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे उसके अपने हित सध सकें। इसमें रूस की भी अहम भूमिका हो सकती है। अपने आप को यूरेशिया की एक अहम ताकत के तौर पर देखने वाले रूस के पास ये मौका है वो ख़ुद को इस क्षेत्र की जिम्मेदार और स्थिरता लाने वाले देश के तौर पर पेश कर सके। अब तक अफगानिस्तान में कोई राजनीतिक समझौता न हो पाने और तालिबान के पूरे देश पर जीत हासिल करने की आशंका के चलते, रूस के लिए जोखिम बढ़ गया है, क्योंकि वह अफगानिस्तान में सुरक्षा का भरोसा देना चाहता है।
सुरक्षा संबंधी इस चुनौती से निपटने के लिए, रूस के लिए ये अहम होगा कि वह भारत समेत तमाम क्षेत्रीय ताकतों से सक्रिय रूप से संवाद करे। हालांकि, अफगानिस्तान को लेकर रूस का नजरिया भारत से अलग है, क्योंकि भारत, पाकिस्तान की भूमिका को लेकर खास तौर से चिंतित है। ऐसे में यूरेशिया में रूस के दूरगामी हितों को तभी फायदा होगा जब वह पाकिस्तान के साथ अपने संबंध बेहतर बनाने की कोशिश में भारत के साथ अपने रिश्ते न खराब करे। आज भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए तमाम पक्षों के साथ संपर्क स्थापित करने और क्षेत्रीय ताकतों के साथ संवाद बढ़ाने की जरूरत है। यह काम आसान नहीं रहने वाला है, खासतौर से इसलिए भी, कि रूस, ईरान और मध्य एशिया के दूसरे देशों की नजर में भारत, तमाम दोस्त देशों में से महज एक है।
इसके अलावा, भारत के पास वो ताकत भी नहीं है कि उसे त्रिपक्षीय वार्ता या फिर विस्तारित त्रिपक्षीयवार्ता जैसे उन तमाम मंचों पर आमंत्रित किया जाये, जहां अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर चर्चा हो रही हो। इन हालात में भारत के अफगानिस्तान के मसले पर, रूस से सीधा संवाद करने की अहमियत और भी बढ ़जाती है। अगर दोनों देश अफगानिस्तान के मसले पर एक राय कायम कर पाते हैं, तो यह सामरिक साझेदारी के लिहाज से एक सकारात्मक संकेत होगा। इससे भारत, जंग से बेहाल अफगानिस्तान में न सिर्फ अपने हित सुरक्षित रख सकेगा, बल्कि रूस भी यूरेशिया की एक अहम शक्ति के रूप् में अपनी स्थिति मजबूत कर पाएगा और भारत के साथ अपने रिश्ते भी बेहतर कर सकेगा।

÷लेखक आज समाचार पत्र के नेशनल ब्यूरो इन चीफ़ दिल्ली में कार्यरत हैं÷