लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷देश की राजधानी नई दिल्ली समेत जम्मू कश्मीर,हिमाचल प्रदेशपंजाब,उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भूकंप के तेज झटके से एक बार फिर जनमानस सिहर उठा है।हालांकि जानमाल का नुकसान नहीं हुआ लेकिन एक बात स्पष्ट है कि विकास के नए आयाम गढ़ने और उच्च तकनीक हासिल करने के बावजूद भी हम भूकंप का पूर्वानुमान लगाने में विफल हैं।हां रूस और जापान में आये अनेक भूकंपो के पर्यवेक्षणो से पूर्वानुमान के संकेत सामने आने लगे हैं, लेकिन भारत अभी भी वह उपलब्धि हासिल नहीं कर सका है।जबकि भारत भूकंप से प्रभावित विनाशकारी क्षेत्रों में से एक संवेदनशील क्षेत्र है।
गौर करें तो विश्व के भूकंप क्षेत्र मुख्यतः दो तरह के भागों में हैं एक परि प्रशांत (सर्कम पेसिफिक)क्षेत्र जहां 90 फीसद भूकंप आते हैं और दूसरे हिमालय और आल्प्स क्षेत्र।भूकंप क्षेत्रों का प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ संबंध है,वस्तुतः भूकंप के कई कारण है। लेकिन भारत और यूरेशिया प्लेटों के बीच टकराव हिमालय क्षेत्रों में भूकंप का प्रमुख कारण है।अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो यह प्लेटें 40 से 50 मिमी प्रति वर्ष की गति से चलायमान हैं।इस प्लेट की सीमा विस्तृत है,यह भारत में उत्तर में सिंधु-सांगपो सुत्तुर जोन से दक्षिण में हिमालय तक फैली है। यूरेशिया प्लेट के नीचे उत्तर की ओर स्थित भारत प्लेटो की वजह से पृथ्वी पर यह भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। वैज्ञानिकों की मानें तो कश्मीर से नार्थ ईस्ट तक का इलाका भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। इसमें हिमाचल,असम,अरुणाचल प्रदेश,कुमाऊं और गढ़वाल समेत पूरा हिमालय क्षेत्र शामिल है। निश्चित रूप से उत्तरी मैदान क्षेत्र भयावह भूकंप के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूकंप की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल इस मैदान की रचना जलोद मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय संपीडन के फल स्वरुप इस मैदान में कई दरारे बन गई हैं।यही वजह है कि भूगर्भिक हलचल उसे शीघ्र ही कम्पित हो जाता है।अगर इस क्षेत्र में भूकंप आता है तो भीषण तबाही मच सकती है,भीषण भूकंपो से भारत में भी अनगिनत बार जनधन की भारी तबाही मच चुकी है।
उदाहरण के लिए 11 दिसंबर 1967 में कोयना के भूकंप में सड़क तथा बाजार वीरान हो गए। हरे भरे खेत उबड़ खाबड़ भूभागों में बदल गए,हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हुई।अक्टूबर 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में उस्मानाबाद और लातूर के भूकंप में हजारों व्यक्तियों की जानें गई और अरबों रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ।उत्तरकाशी के भूकंप में लगभग 5 हज़ार लोग कालकवलित हुए,26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज कस्बे में आए भूकंप से 3000 से अधिक लोगों की जानें गई।अभी हाल ही में इराक ईरान सीमा पर आए 7.3 के तीव्रता वाले भीषण भूकंप में तकरीबन 500 से अधिक लोगों की दर्दनाक मौत हुई।याद होगा कि गत वर्ष पहले म्यांमार सीमा के निकट शक्तिशाली भूकंप आया था, जिसके झटके ने पूर्वोत्तर राज्यों समेत पश्चिम बंगाल,उत्तर प्रदेश, बिहार,झारखंड,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के लोगों को डरा दिया था।इससे पहले पूर्वोत्तर में आए भीषण भूकंप में डेढ़ दर्जन से अधिक लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए थे।उचित होगा कि वैज्ञानिक बिरादरी भूकंप के पूर्वानुमान का भरोसेमंद उपकरण विकसित करें। सरकार की भी जिम्मेदारी है कि भवन निर्माण में ऐसी तकनीक का विकास करें जिससे की इमारतें भूकंप के झटके को सहन कर सके।ध्यान दें तो भूकंप में सर्वाधिक नुकसान भवनों इत्यादि के गिरने से होता है। दुनिया के सर्वाधिक भूकंप जापान में आते हैं इसलिए उसने अपनी ऐसी आवास व्यवस्था विकसित की है,जो भूकंप के अधिकतर झटकों को सहन कर लेती है। इसके अलावा सरकार व स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वह आपदा के समय किए जाने वाले कार्य व्यवहार के बारे में जनता को प्रशिक्षित करें। मानव जाति के लिए भी चाहिए कि वह प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाये।यह देखा जा रहा है कि विकास की अंधी दौड़ में मानव प्रकृति के विनाश पर आमादा है। यह तथ्य है कि अंधाधुंध विकास के नाम पर मानव प्रतिवर्ष 7 करोड़ हेक्टेयर वनों का विनाश कर रहा है। पिछले सैकड़ों सालों में उसके हाथों प्रकृति की एक तिहाई से भी अधिक प्रजातियां नष्ट हुई हैं।जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसद कमी आई है। जैव विविधता पर संकट है, वनों के विनाश से प्रतिवर्ष 12 टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में घुल मिल रहा है। बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बाँध बनाये जाने से खतरनाक पारिस्थितिकिय जल संकट खड़ा हो गया है।जल का दोहन सलाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। भारत की गंगा और यमुना जैसी अनेक नदिया सूखने के कगार पर है।वे प्रदूषण के कारण कराह रही है।सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरा बहाने के कारण पानी ज़हर बनता जा रहा है।जल संरक्षण और प्रदूषण पर ध्यान नहीं दिया गया तो 200 सालों में भूजल स्रोत सूख जाएगा किंतु भोग में डूबा मानव इन सम्भावित आपदाओ से बेफिक्र है।नतीजन उसे मौसमी परिवर्तनों मसलन ग्लोबल वार्मिंग,ओजोन क्षरण,ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकंप, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी अनेक विपदा से जूझना पड़ रहा है।हालांकि प्रकृति में हो रहे बदलाव से मानव जाति चिंतित है, और इसके लिए 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन,1992 में रियो डी जेनेरियो,2002 में जोहानिसबर्ग,2006 में मॉन्ट्रियल, 2007 में बैंकॉक और 2015 में पेरिस सम्मेलनों के जरिए चिंता जताई गई। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कानून भी बनाए गए लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उस पर अमल नहीं हो पा रहा है और मानव अपने दुराग्रहों के साथ है।लिहाजा प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गई है।समझना होगा प्रकृति सर्वकालिक है, मनुष्य अपने वैज्ञानिकता के चरम बिंदु पर क्यों न पहुंच जाए उसकी एक छोटी सी खिलवाड़ भी सभ्यता का सर्वनाश कर सकती है, लेकिन विडंबना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण समझने को तैयार नही हो रहा है। लेकिन यह समझना होगा कि जब तक प्रकृति से एकरसता स्थापित नहीं होगी तब तक प्रकृति के गुस्से का कोप भाजन बनना होगा।
गौर करना होगा सिंधु घाटी की सभ्यता या मिस्र की नील नदी घाटी की सभ्यता या दजला फरात हो या हनांग गहो घाटी की सभ्यता,सभी में प्रकृति के प्रति एकरसता थी। इन सभ्यताओं के लोग प्रकृति को ईश्वर का प्रतिरूप मानते थे। इन सभ्यताओं में वृक्ष पूजा और नाग पूजा के स्पष्ट प्रमाण हैं,यह इस बात का संकेत है कि हजारों हजारों वर्ष पूर्व मानव जाति प्रकृति के निकट और सापेक्ष था।उसकी प्रकृति में समरसता और आत्मीयता थी, उसकी सोच व्यापक और उदार थे। मौजूदा समय में भी स्वंय को बचाने के लिए प्रकृति के निकट जाना होगा,यह समझना होगा कि अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया चीन जिनकी वैज्ञानिक तकनीकी क्षमता का दुनिया लोहा मानती है वह भी प्रकृति के आगे घुटने टेक चुके हैं।अलास्का चिली और कैरेबियाई हैती में आए भूकंप की बात हो या जापान में सुनामी के कहर के बचाव के वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए।लेकिन विडंबना की इस ज्ञान के बावजूद भी 21वी सदी का मानव प्रकृति की भाषा को समझने को तैयार नहीं।बल्कि उसका चरम् लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है।किंतु मानव को समझना होगा कि उसका यह आचरण समष्टि विरोधी है।प्रकृति पर प्रभुत्व की लालसा विनाश का रास्ता है। मानव जाति को समझना होगा कि आए दिन आ रहे भूकंप प्रकृति की एक छोटी सी प्रतिक्रिया भर है।अगर मानव जाति प्रकृति के प्रति अपनी क्रूरता का परित्याग नही किया तो उसका अस्तित्व मिटना तय है।
÷लेखक राजनीतिक व विभिन्न विषयों के ज्ञाता हैं÷