लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷बात चाहे आजादी के संघर्ष की हो अथवा स्वाधीन भारत को अर्थपूर्ण मुकाम देने की या दलित समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने की, देश सदैव ही जगजीवन बाबू का ऋणी रहेगा। जगजीवन बाबू का निर्मल व्यक्तित्व, ओजपूर्ण वक्तव्य और समतावादी विचार आज भारतीय जनमानस के लिए प्रेरणा का स्रोत है। गरीब और दबे कुचले परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी बाबू जगजीवन राम में साहस और आत्मबल गजब का था। छात्र जीवन से ही वे जुझारू प्रकृति के थे और देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी।समाज में व्याप्त ऊंच-नीच और गैर बराबरी की पीड़ा उन्हें द्रवित करती थी, किंतु वे कभी इससे विचलित नहीं हुए,उन्होंने हर परिस्थितियों का साहस से मुकाबला किया।
बाबू जगजीवन राम में विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की अद्भुत क्षमता थी,अपने कुशल व्यवहार और शालीन आचरण धीर गंभीर व्यक्तित्व के कारण अपने वैचारिक विरोधियों में भी उतना ही लोकप्रिय थे जितना कि अपनों के बीच।बाबू जगजीवन राम का उद्दात जीवन गांधी जी से प्रभावित था।गांधी की तरह ही वह भी अहिंसात्मक आंदोलन में विश्वास करते थे, इसलिए वे गांधीजी के हर आंदोलन कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे।1942 में जब गांधीजी ने”अंग्रेजो भारत छोड़ो” का आंदोलन का नारा दिया तो बाबू जगजीवन राम सेनापति की तरह अग्रिम पंक्ति में डट गए, सिविल नाफरमानी आंदोलन में भी अंग्रेजी सरकार के मुखालफत कर जेल जाना स्वीकार किया। मानवीय उद्दात भावनाओं से लवरेज बाबू जगजीवनराम की लोकप्रियता की धाक ही कही जाएगी कि वह महज 28 साल की उम्र में 1936 में बिहार विधान परिषद के लिए चुने गए।इसके बाद जब 1945 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत 1937 में चुनाव हुआ तो वे डिप्रेस्ड क्लास लीग के उम्मीदवार के तौर पर निर्विरोध चुने गए और साथ ही अपने राजनीतिक आभामंडल से 14 उम्मीदवारों को भी निर्विरोध निर्वाचित कराने में सफल रहे। हालांकि अंग्रेजों ने भरपूर कोशिश की कि बाबू जगजीवन राम को पद और धन का लालच देकर बिहार में कमजोर सरकार का गठन किया जाए लेकिन स्वाभिमान के धनी बाबू जगजीवन राम ने अंग्रेजों की रणनीति विफल कर दी और उनकी राष्ट्र निष्ठा का देश ने लोहा माना।बिहार में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो वह मंत्री बनाए गए लेकिन अंग्रेज सरकार के तिकड़म से आजिज आकर जब गांधी जी की सलाह पर कांग्रेसी सरकारों ने इस्तीफा दिया तो बाबू जगजीवन राम इसमें भी सबसे आगे दिखे।बाबू जगजीवन राम लोहे से लोहा काटने में माहिर थे, उन्होंने अंग्रेजों की कूटनीतिक रणनीति का जवाब राष्ट्रनीति से दिया।देश की आन बान और शान उनके लिए सर्वोपरि था।अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले भारत वर्ष कई टुकड़ों में विभक्त हो, इसके लिए वह बाबू जगजीवन राम को अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश की।शिमला में कैबिनेट मिशन के सामने जब बाबू जगजीवन राम डिप्रेस्ड क्लास के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए तो अंग्रेजो ने अपने पाले में लाने भरपूर कोशिश की, उनकी मंशा दलितों और भारतीयों में फूट डालने की थी। लेकिन बाबू जगजीवन राम अंग्रेजों की मंशा को तत्काल भाँप गए और सजग हो गए।बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक स्वीकार्यता इतनी जबरदस्त थी कि अंतरिम सरकार में लार्ड वावेल की कैबिनेट में जब एक दर्जन लोगों को शामिल किया गया तो उनमें जगजीवन राम भी थे।उन्हें श्रम मंत्रालय का प्रभार दिया गया, श्रम विभाग के मंत्री के तौर पर उन्होंने अपनी काबिलियत का भरपूर परिचय दिया।उनके मन में आम आदमी के प्रति पीड़ा थी उनकी स्पष्ट छाप उनके कार्यों में भी देखने को मिली। उनके फोकस में हमेशा समाज के अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति था। वे चाहते थे कि समाज के गरीब दबे कुचले और निरीह लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हों और उनका चतुर्दिक विकास हो। इसलिए श्रम मंत्री रहते हुए उन्होंने ढेरों ऐसे मानवीय कानून बनाए जो आज भी प्रासंगिक हैं। मसलन उन्होंने मिनिमम वेजेस एक्ट, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स,और ट्रेड यूनियन बनाया, जिसकी उपादेयता आज भी मजदूरों के हित के लिए सर्वाधिक सारगर्भित मानी जाती है। आजादी के बाद भी बाबू जगजीवन राम ने अपने गुरुत्तर दायित्व का भली-भांति निर्वहन किया।1952 में जब देश में प्रथम आम चुनाव हुआ और पंडित नेहरू की सरकार बनी तो जगजीवन बाबू संचार मंत्री बनाए गए।महत्वपूर्ण विभाग होने के नाते उनकी जिम्मेदारी भी बड़ी थे, उन दिनों विमानन मंत्रालय संचार विभाग के ही अधीन हुआ करता था। लिहाजा उन्होंने राष्ट्र के विकास के लिए अपना जी जान लगा दिया। उन्होंने निजी विमानन कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया और गांव-गांव में डाकखानों की उपलब्धता सुनिश्चित की। उनकी योग्यता और कर्मठता से अभिभूत होकर पंडित नेहरू ने रेल मंत्रालय का भी दायित्व सौंप दिया और रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम के समक्ष एक बड़ी चुनौती थी और उन्होंने इसे स्वीकार किया। जगजीवन बाबू चुनौतियों पर विजय पाना अच्छी तरह जानते थे उन्होंने दूर दृष्टि का परिचय देते हुए सबसे पहले रेलवे के आधुनिकीकरण पर जोर दिया।वह अच्छी तरह जानते थे कि रेल राज्यों को जोड़ती है बल्कि लोगों के दिलों को भी जोड़ती है, सो उन्होंने उनके विस्तार के लिए उल्लेखनीय कार्य किया।
रेल कर्मचारियों के प्रति अगाध प्रेम था उन्होंने उनके हित में कई योजनाएं बनाई और उसका परिणाम भी बेहद सार्थक निकला। बाबू जगजीवन राम की दिलेरी कभी-कभी कुतूहल पैदा करती थी। सत्ता का मोह उन पर कभी हावी नहीं रहा ,जब कामराज योजना आई तो उन्होंने ठोकर लगा कर एक कर्म योगी की तरह संगठन पर ध्यान केंद्रित किया।किंतु लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु उपरांत जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी तो बाबू जगजीवन राम उनके लिए फिर प्रासंगिक हो गए।उन दिनों भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा था आंतरिक और वाह्य दोनों मोर्चों पर भारत एक साथ जूझ रहा था। 1962 में चीन के हाथों करारी हार ने सेना का मनोबल तोड़ दिया था भारतीय जनमानस भी उद्वेलित और विचलित था। 1965 में पाकिस्तान भारत को आँख दिखा चुका था। ऐसे में देश को और अवसाद से उभारना जरूरी था लेकिन देश में व्याप्त गरीबी और भुखमरी एक नई चुनौती थी,और वह संकट को लगातार बढ़ा रहे थे।अन्न की कमी और सूखे की भयावहता मानवता को लील रहे थे। देश अमेरिका से PL 480 के तहत सहायता में मिलने वाले गेहूं और ज्वार पर आश्रित था किंतु वह भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा था, सबका पेट भरना कठिन था। उम्मीद की किरण तब जगी जब नॉर्मन बोरलॉग भारत आकर हरित क्रांति का संचार किया। आधुनिक सोच के प्रबल पैरोकार बाबू जगजीवन राम तब कृषिमंत्री थे।उन्होंने डॉ नॉर्मन बोरलॉग को बुला कर उनके विचारों को सराहा और अपना शत-प्रतिशत राजनीतिक समर्थन दिया। ईमानदारी से काम किया गया प्रयास रंग लाया और 3 साल के अंदर खेतों में फसल लहलहाने लगी और उत्पादन के मामले में भारत अपने पैरों पर खड़ा होने लगा।दरिद्रता का पाँव सिकुड़ने लगा खुशहाली बढ़ने लगी। तत्काल ही भारत निराशा के गर्त से बाहर आ गया,इसका श्रेय बाबू जगजीवन राम को जाता है। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में बाबू जगजीवन राम का योगदान अविस्मरणीय है।जिस तरह उन्होंने सेनाओं के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाया वह उनकी राष्ट्रभक्ति अटूट बानगी है। बाबू जगजीवन राम की दलीय प्रतिबद्धता और राजनीतिक विश्वसनीयता कमाल की थी।वे आंख बंद कर दूसरे पर भरोसा करते थे और चाहते थे कि उन पर भी उसी तरह भरोसा किया जाए। जब इंदिरा गाँधी अपने राजनीतिक जीवन के जटिल दौर से गुजर रही थी तो उस दरमियान बाबू जगजीवन राम उनके साथ चट्टान की तरह खड़े रहे। हिमालय की तरह अडिग विचार और सागर की तरह गहरी संवेदना रखने वाले इस मनीषी के जन्मदिन पर भला उन्हें कौन नही याद करना चाहेगा।

÷लेखक प्रख्यात राजनीतिक समीक्षक व आलोचक हैं÷