उंट÷आरपी यादव ।

♂÷अरावली पर्वत भले ही दिल्ली में छोटी पहाड़ियों सा दिखे किन्तु इसका एक भाग राजस्थान के सिरोही में आसमान छू रहा है, जिसे माउंट आबू कहते हैं। पौराणिक कथाओं से ओतप्रोत माउंट आबू सदियों से साधकों का साधना केंद्र रहा तो सैलानियों की सैरगाह भी रहा। साधना केंद्र तीर्थ धाम बने तो सैरगाही भी बढ़ गयी। धामों में जहां आराधक एक ओर अपने देव ढूढ़ते हैं, वहीं दूसरी ओर सैलानी प्रकृति की अनोखी लीला का दीदार करते हैं, जिन्हें रिझाने के लिए यहां कई संगठन सक्रिय है, जिसमें ब्रह्मकुमारीज भी शामिल है। उनका अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय ऊपर से लेकर नीचे तक फैला है। रजिस्ट्रेशन आफिस आबू रोड़ के शांतिवन में है, तो आध्यात्मिकता का भंडार यहां बिखरा है।
पिछले दिनों शांतिवन में ‘शांति और सद्भाव के लिए आध्यात्मिकता’ विषय पर राष्ट्रीय मीडिया सम्मेलन था, जिसमें पत्रकारों का संगठन इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स भी आमंत्रित था। एक सदस्य के नाते मुझे भी उस कार्यक्रम शामिल होने का मौका मिला। चार-दिनी कार्यक्रम में प्रस्तुत प्रस्तावों के अनुमोदन का सहभागी बना तो संगठन की आंतरिक गतिविधियों को भी जाना। संगठन की प्रारंभिक जानकारी शांतिवन में मिली तो आध्यात्मिकता का एहसास ज्ञान सरोवर में हुआ।
रात तीन बजे आबू रोड़ रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म दो पर हैं। यहीं से ब्रह्मकुमारीज संगठन के कैंम्प्स शांतिवन जाना है पर दिल हुकुर पुकुर कर रहा है कि रात में वहां पहुंचेंगे कैसे। दिल को ढाढ़स बंधाया, सामान समेटा और प्लेट फार्म एक पर आ गया। वहां पूछने पर पता चला कि रेलवे पार्किंग से हटकर आश्रम की अपनी पार्किंग है, जहां से उनकी बसें आगंतुकों को कैम्पस तक छोड़ती हैं। पार्किंग में बहुत सी बसें खड़ी मिलीं। एक बस में ब्रह्मकुमार (संगठन के पुरूष अनुयायियों को ब्रह्मकुमार और महिला अनुकरणियों को ब्रह्मकुमारी कहा जाता है) गिन-गिनकर सवारियां बैठा रहे हैं। धवलवस्त्रधारी ब्रह्मकुमारों की आत्मीयताभरा व्यवहार देखकर सारी शंकाएं रफूचक्कर हो गईं। आश्रम की बस में बैठा और मुंहअंधेरे शांतिवन पहुंच गया। रोड़ पर अभी भी अंधेरा पसरा है पर शांतिवन जगमगा रहा था, पता चला कि यह ‘इंडिया वन सोलर थर्मल पावर प्लांट’ का कमाल है।
ब्रह्मकुमारीज साम्राज्य में घुसने की पहली सीढ़ी शांतिवन ही है। मीलों में पसरे शांतिवन में स्वागत कक्ष (रजिस्ट्रेशन आफिस) है तो अतिथिशाला भी है। कर्मी आवास है तो ब्रह्मकुमारीज निवास भी है। सम्मेलन हाल है तो समागम हाल डायमंड भी है, जो संगठन की स्थापना के साठवें वर्ष की याद दिलाता है। समूह मीटिंग के लिए शिव बाबा (ब्रह्मकुमारीज संगठन के संस्थापक लेखराज खूबचंद कृपलानी को अनुयायी शिवबाबा कहते है) हाल है तो प्रकाशमणि भी है। आध्यात्मिक राजयोग के लिए हाल है तो दादी प्रकाशमणि पार्क भी है। बीमारों के लिये डिस्पेंसरी है तो खाने का हाल बखानने लायक है। विशाल परिसर के साथ खड़ा है भीमकाय अर्बुदा पर्वत, जो एक ओर आश्रम की रक्षा करता है तो दूसरी ओर आगंतुकों का रिझाता भी है। स्वागत कक्ष के काउंटर पर रजिस्ट्रेशन स्लिप दिखाने पर कमरा मिल गया था। दो दिन तक कॉन्फ्रेंस हाल में दूर दराज से आए पत्रकारों के बिचार सुनें, किन्तु संगठन का खुली आंखों वाला आध्यात्म राजयोग का रहस्य समझ में नहीं आया, शायद अभ्यास की जरूरत है। संगठन की मुखिया 104-वर्षीय दादी जानकी ने सम्मेलन का समापन किया तो आबू पर्वत की ओर निकल गया।
आबू पर्वत पर सभी सम्प्रदायों के भगवान बसते हैं। हिन्दुओं के देवी-देवता हैं तो जैनियों के तीर्थांकर। इस्लामिक पीर हैं तो भगवान ईशू भी पीछे नहीं हैं। इनके चारों ओर प्रकृति का सुंदर संसार फैला है, जिसमें मूलवासी आदिवासियों का वास है तो पशु, पक्षी और जंगली जानवरों का बसेरा भी है। इतनी सारी खूबियों वाले माउंट आबू को नजदीक से देखने के लिए शांतिवन बस स्टैंड से बस पकड़ा और चढ़ाई की ओर निकल गया। करीब डेढ़ घंटे सफर के बाद ज्ञान सरोवर रोड़ आ गया। इसी रोड़ पर ब्रह्मकुमारीज का ज्ञान भंडार है, जिसे ‘ज्ञान सरोवर रीट्रीट सेंटर’ कहा जाता है। करीब 25 एकड़ में फैले परिसर में यूनिवर्सल हार्मनी हाल है तो हार्मनी हाउस भी है। अध्यात्मिक झोपड़ी है तो दादी जानकी पार्क भी है। सरोवर प्रतीक तीन-तीन झीलें परिसर की शोभा बढ़ा रही हैं। परिसर के मुंहाने पर ‘अकादमी फॉर वेटर वर्ल्ड’ का बोर्ड चमक रहा है।
यही संगठन का प्रशिक्षण केंद्र है। इसी केंद्र में नर, नारी और बच्चों को खुशहाल जीवन जीने की कला सिखाई जाती है, यूं कहें कि यहीं पर ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी बनने का मंत्र दिया जाता है। वे शिव बाबा के साकार मुरली का रहस्य समझते हैं तो ओम शांति का जाप भी करते हैं। आत्मा और परमात्मा में भेद समझते हैं तो मिलन की क्रिया भी करते हैं। साधन बनाते हैं योगाओं के राजा राजयोग को। ब्रह्मकुमारीज नारी प्रधान संगठन है सो यह क्रिया ब्रह्मकुमारियों द्वारा कराई जाती है। आध्यात्मिक गुंबद के नीचे मानसी डुबकी लगाई और नक्की लेक (दांव वाली झील) की ओर चल दिया।
करीब बीस मिनट में नक्की लेक पहुंच गया। लेक का आकार-प्रकार देखकर चीन से सटे अरूणाचल प्रदेश के जिला तवांग की संगेस्तर त्सो, जिसे माधुरी लेक भी कहते है, की याद आ गई। यह 4 हजार फिट की ऊंचाई पर है तो वह 16 हजार फिट की। यहां झील के किनारे मंदिर और मजार वसे हैं तो उसके साथ चीनी पहाड़ खड़ा है। भूकम्प ने उसका नक्शा बदल दिया तो इसे मानव के नाखून से खोदी गई बताया गया है। इसके पीछे एक कहानी प्रचलित है। किंवदंती है कि माउंट आबू की हसीन वादियों में बालम रसिया नामक औघड़ आदिवासी रहता था, जिसे यहां की राजकुमारी से प्यार हो गया। वह राजकुमारी से शादी करना चाहता था, राजकुमारी भी इसके लिए तैयार थी पर राजा को यह रिस्ता पसंद नहीं था। वे एक अघोरी को अपना दामाद नहीं बनाना चाहते थे। उन्होंने एक शर्त रख दी कि यदि वह रातभर में अपने नाखून से यहां झील खोद देगा तो उसकी शादी राजकुमारी से कर दी जाएगी।
बालम रसिया ने यह शर्त मान ली और अपने नाखूनों से झील खोदनी शुरू कर दी। उधर रानी को यह प्रस्ताब मंजूर नहीं था। वे इस शर्त को पूरा होने से रोकने के लिए छल-कपट का सहारा लिया। बालम रसिया भोर होने से पहले झील खोदकर जैसे ही राजा के पास जाने को हुआ कि रानी ने मुर्गे का रूप धरकर कुकडू-कूं की बांग दे दी। बालम रसिया मुर्गे की बांग को भोर का संकेत समझ बैठा और निराश होकर यहीं आत्म हत्या कर ली, किन्तु मरने से पहले वह रानी के मायाजाल को जान गया। उसने रानी को श्राप दे दिया। श्राप देते ही रानी पत्थर की मूर्ति बन गईं। आज इस मूर्ति पर लोग पत्थर बरसाते हैं।
तंद्रा टूटी तो निगाह झील में चली गई। करीब हजार मीटर लम्बी और पांच सौ मीटर चौड़ी झील में सैलानियों की नौकाएं दौड़ रही है। वे अपने नौकायान में मस्त है तो श्रद्धालु किनारे स्थित महादेव मंदिर और बाबा एहसान अली शाह की दरगाह में पूजा में व्यस्त हैं। झील के उस ओर टोड रॉक (विषदार मेंढक जैसी चट्टान) ऐसे खड़ी है, मानो वह झील में कूदने वाली है। झील के किनारे फोटो खिंचवाकर मन में झील की गहराई नाप रहा था कि बस की सीटी बज गई। बस में बैठा और दादा लेखराज की आधात्म स्थली पांडव भवन की ओर चल दिया। यह दादी प्रकाशमणि रोड़ है, कभी यह अशोक रोड़ हुआ करता था। ब्रह्मकुमारीज संस्था की दूसरी मुखिया प्रकाशमणि का देहांत हुआ तो यह रोड़ उन्हें समर्पित कर दिया गया।
पंद्रह-बीस मिनट में पांडव भवन परिसर पहुंच गया। इस परिसर को मधुवन भी कहते हैं। यही परिसर प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय का केंद्र है, हालांकि यह वैधानिक विश्वविद्यालय नहीं है। रोड़ के एक ओर पैराडाइज यानी आनंद भवन की विशाल इमारत है तो दूसरी ओर यूनिवर्सल पीस हाल, जिसे ओम शांति भवन कहा जाता है। आनंद भवन ही दादा लेखराज कृपलानी का वसेरा था। उन्होंने ओम मंडली की नींव भले ही पाकिस्तान के हैदराबाद में रखी पर मंडली का विस्तार इसी भवन से हुआ। मंडली ब्रह्मकुमारीज संगठन बना तो दादा लेखराज ब्रह्मबाबा बने, फिर शिव बाबा हो गए। आज अनुयायी उन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं।
इसी भवन में उनकी अध्यात्मिक कुटिया सजी है तो सामाने पीस टावर खड़ा है, जिसके नीचे उनके शारीरिक अवशेष पड़े हैं। परिसर का म्युजियम देखने लायक है। इसमें सभी संप्रदायों के देवी-देवताओं को समान सम्मान दिया गया है। ब्रह्मकुमारों द्वारा संचालित ट्रस्टी अस्पताल जे. वाटूमल ग्लोबल हास्पिटल एण्ड रीसर्च सेंटर बगल में है, जहां सभी बीमारियों का इलाज मुफ्त में होता है। अस्पताल के सामने, रोड़ उस पार पार्क है, जिसके साथ शहीद मेजर शैतान सिंह का बोर्ड लगा है।
बोर्ड पर शैतान सिंह का नाम देखकर 1962 वाला भारत-चीन युद्ध याद आ गया। उस युद्ध में चीन के 13 सौ सिपाही लद्दाख के रेजांग ला का सेक्टर चुशूल कब्जियाने आए थे, जिनका मुकाबला कुमाऊं रेजिमेंट की 13वीं बटालियन की कम्पनी चार्ली से हुआ था। एक ओर आधुनिक हथियारों से लैस 13 सौ सिपाहियों की विशाल फौज थी तो दूसरी ओर चार्ली कम्पनी के सिर्फ 120 जवान, वह भी घिसे-पिटे हथियारों के साथ। बर्फीली जमीनी लड़ाई में बहुत से चीनी सैनिक मारे गए तो चार्ली कम्पनी के 114 सैनिक भी शहीद हो गए थे पर सेक्टर कब्जियाने आए चीनी भारत की एक इंच जमीन भी नहीं कब्जिया सके और उन्हें युद्ध विराम की घोषणा करनी पड़ी थी। उस युद्ध के ज्यादातर शहीद सैनिक हरियाणा के जिला रेवाड़ी के अहीर थे तो कम्पनी कमांडर यही शैतान सिंह थे, जिन्हें मरणोपरांत परम वीर चक्र से नवाजा गया है। शहीद मेजर को नमन किया और दिलबाड़ा की ओर निकल गया, स्थानीय लोग इसे देउल बाड़ा कहते हैं।
दिलबाड़ा जैन धर्मावलम्बियों का तीर्थ स्थल है तो सैलानियों का पर्यटन स्थल। एक वहां अपने भगवान रूपी तीर्थांकरों की पूजा करता है तो दूसरा इमारतों की बारीक चित्रकला देखकर वाहवाही करता है। रोड़ के किनारे आधार देवी मंदिर का बोर्ड दिखा। बताया गया कि ऊपर पहाड़ी पर आधार देवी मंदिर है, जहां की शिला गुफा में देवी दुर्गा विराजमान हैं। स्थापनाकारों का मानना है कि सती पार्वती का आधा शरीर वहीं गिरा था। समयाभाव के चलते वहां जाना नहीं हुआ। बस हचका लेकर रूकी तो पता चला कि दिलबाड़ा की बस पार्किंग है।
पार्किंग के साथ ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी हैं। इन्हीं दीवारों के बाड़े में दिलबाड़ा जैन मंदिर हैं। बस से उतरकर बाड़े की ड्योढ़ी पहुंच गया। ड्योढ़ी के एक ओर जूते-चप्पल का स्टैंड है तो गेट के साथ मोबाइल काउंटर भी है। सामान ठिकाने लगया और बाड़े में घुस गया। बाडे में पांच मंदिर हैं, जिनमें जैन धर्म के चार तीर्थांकर विराजमान है। धर्म के पहले तीर्थांकर आदिनाथ नाम से विमल वसही में विराजमान हैं तो ऋषभदेव नाम से वसही पीतलहार में। 22वें तीर्थांकर नेमिनाथ का वसेरा लूणी वसही है तो 23वें तीर्थांकर पार्श्वनाथ करतार वसही में वसाए गए हैं। आखिरी यानी 24वें तीर्थांकर भगवान महावीर का वसेरा छोटे मंदिर में है। देवों की बैठकी के कपाट बंद हैं पर मंदिरों के गलियारे खुले हैं, जहां दर्शकों की भीड़ लगी है। इस भीड़ में बच्चे, बूढ़े और जवान सभी हैं।
बच्चे लूणी वसही वाले संगमरमर के हाथी देखने में मस्त हैं तो बूढ़े संगमरमर पत्थर पर उकेरी गई नृत्यांगनाओं के चित्र देखकर सकपका सा रहे हैं। जवानों की निगाहें बारीक चित्रकला पर लगी है, वे चित्रों को ऐसे घूर रहे हैं, मानो वे इसके पारखी हैं। बाड़े के विमल वसही और लूणी वसही में इनकी संख्या ज्यादा दिखती है। दिलबाड़ा मंदिर को सैलानी नज़रों से देखा ओर ब्रह्मकुमारीज के पीस पार्क की ओर निकल गया।
अब ओड़िया रोड़ पर है। यही रोड़ ओड़िया गांव को जाती है। रोड़ पर आगे बढ़ा कि तिराहा आ गया। एक रोड़ अचलगढ़ किले को जा रही है तो दूसरी गुरू शिखर को। शिखर रोड़ पर मुड़ते हैं। आगे ओड़िया बाजार आ गई। बाजार के सामने ब्रह्मकुमारीज का पीस पार्क है। पार्क के गेट पर धवल वस्त्रों से स्वागत होता है। पार्क में घुसा तो माहौल रमणीक लगा। यह पार्क कम मनोरंजन स्थल ज्यादा लगता है। लाइन में फूलों की क्यारियां लगी है तो बीच-बीच में नुमाईश भी सजी है। टेंट हाल में कुंभकरण का विभिन्न रूप देखकर हंसी आती है। पार्क में मटरगश्ती करते-करते शाम होB गयी। अरावली पर्वत की सबसे ऊंची चोटी गुरू शिखर सामने दिख रही है पर समयाभाव के चलते जाना संभव नहीं है। यहीं आबू पर्वत की यादें समेटा और देर शाम शांतिवन लौट आया।
~लेखक आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार-स्तम्भकार हैं।