लेखक~डॉ.के. विक्रम राव
♂÷जॉर्ज फर्नांडिस की 92वीं जयंती (3 जून 2022) है| मेरा मानना है कि यदि फ़रवरी 1967 में जॉर्ज की मेहनत रंग पकड़ती तो भारत को गैर-कांग्रेसी प्रधान मंत्री दस वर्षों पूर्व ही मिल जाता| मार्च 1977(एमर्जेंसी के बाद) तक बाट नहीं जोहना पड़ता| यह वाकया खुद जॉर्ज ने मुझे बताया था| उनके करीब के साथी भी जानते हों, शायद| चूँकि यह भ्रूणावस्था में ही निष्फल हो गई थी,अतः भुला दी गई| चर्चित नहीं हो पाई| सफल बगावत ही क्रांति कहलाती है| विफल इन्कलाब को मात्र विद्रोह कहते हैं| अपने वर्षों के सामीप्य पर आधारित स्मृतियां लिए, एक सुहृद को याद करते मेरे इस लेख का आशय यही है कि कुछ उन घटनाओं और बातों का उल्लेख हो, जो अबतक अनजानी रहीं।
बात चौथे लोकसभा (1967) चुनाव की है। कांग्रेस के दिग्गज एस. के. पाटिल, के. कामराज, अतुल्य घोष आदि हार गये थे। इन सबसे इंदिरा गाँधी को आशंका रहती थी। इंदिरा तब तक “गूंगी गुड़िया” (लोहिया के शब्दों में) थीं| शनैः शनैः गुनगुनाना आ रहा था। कांग्रेस पार्टी को तब लोकसभा की कुल 520 सीटों में से 283 मिली थीं| बहुमत से केवल 22 अधिक। राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन प्रधानमंत्री से रुष्ट थे, क्योंकि उन्हें दूसरी बार निर्वाचित होने का मौका देना तय नहीं था। कांग्रेस पार्टी में पचास से अधिक सांसद इंदिरा गाँधी के नेतृत्व से खफा भी थे। तभी कन्नौज से दोबारा जीतकर आये डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद की लहर को आंधी में परिवर्तित कर दिया था। उधर मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस धुल गयी थी। राजस्थान में पुराने कांग्रेसी राज्यपाल बाबू सम्पूर्णानन्द ने स्वतंत्र पार्टी के दावेदार को प्रवंचना करके काट दिया था, मोहनलाल सुखाड़िया को चुपचाप मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दी। जयपुर में खूनखराबा और गोलीबारी हुई। फिर भी उस दौर में चंडीगढ़ से गुवाहाटी तक रेलयात्री कांग्रेस-मुक्त भूमि से यात्रा करता था। लखनऊ में संयुक्त विधायक दल बना। कांग्रेसी मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त को हटाकर, केवल डेढ़ दर्जन विधायक लेकर चरण सिंह मुख्यमंत्री बन गए| गुप्ताजी बीस दिनों के लिए, तो चरण सिंह ग्यारह माह के लिए।
इधर लोहिया भी इंदिरा गाँधी को गिरा देने का यत्न करते रहे। उन्होंने जॉर्ज को काबीना मंत्री यशवंतराव चव्हाण के पास भेजा कि बीस-बाईस सांसदों को लेकर निकल आओ। प्रधान मंत्री पद प्रतीक्षा में है। अगले दशकों में ऐसे ही सत्ता परिवर्तन 1979 में जनता पार्टी (मोरारजी देसाईं) और 1989 कांग्रेस (राजीव गाँधी) के बाद किया गया था। इससे चरण सिंह तथा चंद्रशेखर के नसीब खुल गये थे।
चव्हाण को रिझाने में मराठा गौरव का वास्ता दिलाया गया कि इस बार अहमद शाह अब्दाली (कांग्रेस पार्टी) की हार पानीपत (हस्तिनापुर) में तय है। पर सतारा के इस मराठा ने जॉर्ज का डाला चारा नहीं सूंघा। सह्याद्री का यह शेर हिमालय को चीन की लाल सेना से बचाने अक्टूबर 1962 में रक्षा मंत्री बनकर आया था, मगर चव्हाण ने यही हरकत दस वर्ष बाद की थी जब जनता पार्टी टूटी थी। नेता विपक्ष से वे सीधे उपप्रधान मंत्री बने थे। प्रधानमंत्री चरण (चेयर) सिंह के साथ।
मुझे बाद में जॉर्ज ने बताया था कि चव्हाण सुनकर पहले तो बड़े प्रफुल्लित हुए थे, पर फिर सशंकित हो गए थे। मुहावरा याद करके कि कप और ओंठ के दरम्यान प्याला छूट भी सकता है। उनके पूछने पर जॉर्ज ने आश्वस्त किया कि कुल संख्या 270 तक पहुँच जायेगी। बाद में क्षेत्रीय पार्टियां भी महानदी में झरने बनकर मिल जाएँगी। समस्त समर्थक-सांसदों से मिले बिना चव्हाण कूदने को तैयार नहीं हुए। हालांकि काफी समय वे प्रयासरत भी रहे।
अभी भी जॉर्ज के भाजपा सरकार से सहयोग करने पर अक्सर टीका टिप्पणी होती रहती है। भारत के सोशलिस्टों की नियति रही कि अकेले डांड थामकर अपनी नाव को वर्षों से खेते रहे। किनारा पाये ही नहीं। लोहिया ने पुस्तक “विल टू पॉवर” में समाज परिवर्तन हेतु सत्ता पाने की अपरिहार्यता समझायी थी। तभी हैदराबाद अधिवेशन में 31 दिसंबर (1955) नारा दिया था, “तख़्त पर कब्ज़ा, ताज पर कब्ज़ा, सात बरस के राज पर कब्ज़ा।” मकसद यही था कि भारत बदलना है। जॉर्ज तो लोहिया की पतवार थे।
भारत तो इक्कीसवीं सदी सदी आते आते पलट गया। जार्ज केन्द्रीय काबीना मंत्री बन गए। बताते हैं कि कोई एक बार सरकारी मंत्री बन गया तो उनकी कई पुश्तें बिना श्रम के सुखी जीवन बिता सकती हैं। व्यंग्य हो। पर एक ऐसा भी व्यक्ति रहा जो दस साल में तीन प्रधान मंत्रियों की काबीना में पाँच उच्च विभागों पर आसीन रहा था, मगर बाहर गया तो बेघर था। अट्ठासी की आयु थी, जार्ज फर्नान्डिस की। राजशक्ति और जनशक्ति उसकी सखा रहीं। पर अहंकार कभी समीप नहीं फटका। झूलता पैजामा और कुचैला कुरता देखकर न्यूयार्क के आव्रजन कक्ष में उसकी तलाशी ली गई कि कोई एशियाई श्रमिक तो नहीं घुसा आ रहा है। उसकी फर्राटेदार अंग्रेजी सुनी तो पता चला कि विश्व के महान लोकतंत्र का रक्षा मंत्री है। अमेरिकी राष्ट्रपति का अतिथि है।
आजमगढ़ के संसदीय उपचुनाव (1978) में वह जनता पार्टी के रामबचन यादव के समर्थन में अभियान में आये थे। मुकाबला इंदिरा गांधी की प्रत्याशी मोहसिना किदवई से था। चुनावी जलूस के साथ मैं भी हो लिया। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने तब मुझे लखनऊ में ब्यूरो प्रमुख बनाया था। आजमगढ़ के सड़क पर फुटपाथ पर बने नल से चुल्लू लगाकर जार्ज पानी पिया। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने नाराजगी जताई, “जार्ज तुम भारत के उद्योग मंत्री हो, रेस्त्रां जाकर गिलास में पानी पियो।” वह मुस्कराया : बोला, “पहले से मैं ऐसे ही पीता रहा हूँ, क्यों बदलूँ?”
जार्ज अद्भुत् साथी था, अनोखा आदमी था, कुल मिलाकर एक अजूबा था। चला गया, मगर दर्द दे गया। प्राण तजकर भी जार्ज मैथ्यू फर्नान्डिस आज इतिहास रच गये। ईसाई थे, लोदी रोड विद्युत शवदाह गृह (दिल्ली) में चिता बनी। शेष अस्थियां पृथ्वीराज रोड के क्रिश्चियन कब्रगाह में गजभर भूमि को अर्पित हुईं। जीते जी भौतिकवादी और लोहियावादी वे थे। ईसाई माता-पिता के पुत्र, सुन्नी महिला के पति, (मौलाना आजाद के साथी, शिक्षाशास्त्री, हुमायूँ कबीर के दामाद)। गीताज्ञानी और मानसपाठी जार्ज से बड़ा कोई और सेक्युलर राजनेता मिलेगा?
स्मृति लोप से ग्रसित हो गये। अपने मित्र अटल बिहारी वाजपेयी की भांति। जिस युवा समाजवादी द्वारा बन्द के एक ऐलान पर सदागतिमान, करोड की आबादीवाली मुम्बई सुन्न पड़ जाती थी। जिस मजदूर पुरोधा के एक संकेत पर देश में रेल का चक्का जाम हो जाता था। जिस सत्तर-वर्षीय पलटन मंत्री ने विश्व की उच्चतम बर्फीली रणभूमि साइचिन की अठारह बार यात्रा कर मियां परवेज मुशर्रफ को पटकनी दी थी। सरकारें बनाने-उलटने का दंभ भरनेवाले कार्पोरेट बांकों को उनके सम्मेलन में ही जिस उद्योग मंत्री ने तानाशाह (इमर्जेंसी में) के सामने हड़बड़ाते हुये चूहे की संज्ञा दी, बाद में वही पुरूष अनन्त में विलीन हो गया। जार्ज के देशभर में फैले मित्र याद किया करते रहे। विशेषकर श्रमिक नेता विजय नारायण (काशीवासी) और साहित्यकार कमलेश शुक्ल, जो मेरे साथ तिहाड़ जेल में बडौदा डायनामाइट केस में जार्ज के 24 सहअभियुक्तों में रहे।
चार दशक बीत गये। इन्दिरा गांधी के आपातकाल (1975-77) मे हुकुम स्पष्ट था सी.बी.आई. के लिये कि भूमिगत जार्ज फर्नाण्डिस को जीवित नहीं पकड़ना है। दौर इमर्जेंसी का था। दो लाख विरोधी सीखचों के पीछे ढकेल दिये गये थे। कुछ ही जननेता कैद से बचे थे। नानाजी देशमुख, कर्पूरी ठाकुर आदि। जार्ज की खोज सरगर्मी से थी। उस दिन (10 जून 1976) शाम को बडौदा जेल में हमें जेल अधीक्षक जीवी पण्ड्या ने बताया कि कलकत्ता में जार्ज को पकड़ लिये गये हैं। तब तक मैं अभियुक्त नम्बर एक था। मुकदमों की तहरीर में भारत सरकार बनाम मुलजिम विक्रम राव तथा अन्य था। फिर क्रम बदल गया। जार्ज का नाम मेरे ऊपर आ गया। तिहाड़ जेल में पहुँचने पर साथी विजय नारायण से जार्ज की गिरफ्तारी का सारा किस्सा पता चला। कोलकता के चौरंगी के पास संत पाल कैथिड्रल है। बडौदा फिर दिल्ली से भागते हुये जार्ज ने कोलकता की चर्च में पनाह पाई। कभी तरूणाई में बंगलौर में पादरी का प्रशिक्षण ठुकरानेवाले, धर्म को बकवास कहनेवाले जार्ज ने अपने राजनेता मित्र रूडोल्फ राड्रिक्स की मदद से चर्च में कमरा पाया। रूडोल्फ को 1977 में जनता पार्टी सरकार ने राज्य सभा में एंग्लो-इण्डियन प्रतिनिधि के तौर पर मनोनीत किया गया था। उन दिनों सभी राज्यों की पुलिस और सी.बी.आई. के टोहीजन शिकार को सूंघने में जुटे रहे। शिकंजा कसता गया। चर्च पर छापा पड़ा। पादरी विजयन ने जार्ज को छिपा रखा था। पुलिस को बताया कि उनका ईसाई अतिथि रह रहा है। पर पुलिसिया तहकीकात चालू रही। कमरे में ही एक छोटे से बक्से में एक रेलवे कार्ड मिला। वह आल-इंडिया रेलवेमेन्स फेडरेशन के अध्यक्ष का प्रथम एसी वाला कार्डपास था। नाम लिखा था जार्ज फर्नाण्डिस। बस पुलिस टीम उछल पड़ी, मानो लाटरी खुल गई हो। तुरन्त प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क साधा गया। बेशकीमती कैदी का क्या किया जाए ? उस रात जार्ज को गुपचुप फौजी जहाज इल्यूशिन से कोलकता से दिल्ली ले जाया गया। इन्दिरा गांधी तब मास्को के दौरे पर थीं। उनसे फोन पर निर्देश लेने में समय लगा। इस बीच पादरी विजयन ने कोलकता में ब्रिटिश और जर्मन उपराजदूतावास को बता दिया कि जार्ज कैद हो गये है। खबर लन्दन और बर्लिन पहुंची। ब्रिटिश प्रधान मंत्री जेम्स कैलाघन, जर्मन चांसलर विली ब्राण्ड, आस्ट्रिया के चांसलर ब्रूनो क्राइस्की तथा नार्वे के प्रधानमंत्री ओडवार नोर्डी जो सोशलिस्ट इन्टर्नेशनल के नेता थे, ने इन्दिरा गांधी को मास्को में फोन पर आगाह किया कि यदि जार्ज का एनकाउन्टर कर दिया गया तो परिणाम गम्भीर होंगे। कांग्रेस सरकार की योजना थी कि जार्ज की लाश तक न मिले। गुमशुदा दिखा दिया जाता। वे बच गये और तिहाड़ जेल में लाये गये।
जार्ज की राजनेतावाली ओजस्विता तिहाड़ जेल में हमारे बड़े काम आयी। दशहरा का पर्व आया (अक्टूबर 1976)। तय हुआ कि अखण्ड मानसपाठ किया जाय। पूर्वी रेल यूनियन के नेता महेन्द्र नारायण वाजपेयी ने संचालन संभाला। मानस की प्रतियाँ भी आ गईं। आसन साधा गया। मुश्किल आयी कि हम हिन्दूजन केवल आधे-पौन घंटे की क्षमतावाले ही थे। कमसे कम दो तीन घंटे का माद्दा केवल जार्ज में था। आखिर श्रमिक रैली, चुनावी सभाओं और लोकसभा में भाषण की आदत तो थी ही। तय हुआ कि जार्ज को पाठ के लिए चैबीस में से बारह घंटे चार दौर में आवंटित किये जाये। शेष हम बारह लोग एक एक घंटे तक दो किश्तों में पाठ करें। इसमें थे सर्वोदयी प्रभुदास पटवारी जो बाद में तमिलनाडु के राज्यपाल बने (फिर प्रधानमंत्री बनते ही इन्दिरा गांधी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था)। स्वर्गीय वीरेन शाह थे। नामी गिरामी उद्योगपति और भाजपाई सांसद, वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे। दोहों के उच्चारण, लय तथा शुद्धता में कवि कमलेश शुक्ल माहिर रहे। आखिर पूर्वी उत्तर प्रदेश के विप्रशिरोमणि जो थे। विजय नारायण, महेन्द्र नारायण वाजपेयी, वकील जसवंत चौहान बड़े सहायक रहे। तभी भारतीय जनसंघ (तब भाजपा जन्मी नहीं थी) के विजय मलहोत्रा, सुन्दर सिंह भंडारी, केदारनाथ साहनी, मदनलाल खुराना और प्राणनाथ लेखी, अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल आदि भी हमारे सत्रह नम्बर वार्ड में यदाकदा आते थे। एक बार हम सब को भोजन करते समय ये राजनेता “त्वदीयम् वस्तु गोविन्दम्” उच्चारते देखकर अचरज में पड़ गये। वे समझते थे कि लोहिया के अनुयायी सब अनीश्वरवादी होते हैं।
एक बात जार्ज के बारे में और। समाजवादी हो और आतिशी न हो? यही तो उनकी फितरत होती है। जार्ज ने रक्षामंत्री के आवास (तीन कृष्ण मेनन मार्ग) में बर्मा के विद्रोहियों का दफ्तर खोल दिया। ये लोग फौजी तानाशाहों के विरूद्ध मोर्चा खोले थे। तिब्बत में दलाई लामा की घर वापसी का समर्थन और उनके बागियों को धन-मन से जार्ज मदद करते रहे। अण्डमान के समीप भारतीय नौसेना ने शस्त्रों से लदे जहाज पकड़े जो अराकान पर्वत के मुस्लिम पीड़ितों के लिये लाये जा रहे थे। जार्ज ने जलसेना कमाण्डर को आदेश दिया कि ये जहाज रोके न जाएँ। श्रीलंका के तमिल विद्रोहियों ने अपने दिवंगत नेता वी. प्रभाकरण के बाद जार्ज को अपना सबसे निकट का हमदर्द माना था। सच्चा समाजवादी दुनिया के हर कोने में हो रहे प्रत्येक विप्लव, विद्रोह, क्रान्ति, उथलपुथल, संघर्ष, बगावत और गदर का समर्थक होता है। क्योंकि उससे व्यवस्था बदलती है, सुधरती है। जार्ज सदा बदलाव के पक्षधर रहे। इसलिए आज भी आम जन के वे मनपसन्द राजनेता है।

÷लेखक IFWJ के नेशनल प्रेसिडेंट व वरिष्ठ पत्रकार/स्तम्भकार हैं÷