लेखक~ओमप्रकाश तिवारी
♂÷अबू आसिम आजमी कहते हैं – मैं औरंगजेब रहमतुल्लाह अलैह के साथ हूं। उनका इतिहास देखोगे तो आपको पता चलेगा कि वो एक सेक्युलर बादशाह थे, जिन्होंने अफगानिस्तान से लेकर बर्मा तक भारतवर्ष बनाया। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां हिंदू और मुस्लिम शासकों ने सत्ता चलाने के दौरान अलग-अलग फैसले लिए। लेकिन आज उन्हें राजनीतिक फायदे के लिए धार्मिक रंग देकर नफरत फैलाई जा रही है, जिसमें गोदी मीडिया का बड़ा हाथ है।
देवेंद्र फडणवीस कहते हैं – महाराष्ट्र के कुछ जिलों में औरंगजेब की औलादें पैदा हो गई हैं। वे औरंगजेब की फोटो दिखाते, रखते और स्टेटस लगाते हैं। इस कारण समाज में दुर्भावना और तनाव पैदा हो रहा है। सवाल यह है कि अचानक औरंगजेब की इतनी औलादें कहां से पैदा हो गईं। इनका असली मालिक कौन है, वह हम ढूंढेंगे।
दो विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों के नेताओं द्वारा पिछले कुछ ही दिनों के अंदर दिए गए उपरोक्त दोनों बयान स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि आनेवाले समय में महाराष्ट्र में ध्रुवीकरण तेजी से बढ़ेगा और भविष्य में होनेवाले चुनावों को प्रभावित भी करेगा। अबू आसिम आजमी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वह महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं महाराष्ट्र विधानसभा के सदस्य हैं। अपनी पार्टी की रीति-नीति के मुताबिक वह दिल की बात खुलकर जुबान पर लाने के लिए जाने जाते हैं। यही उन्होंने इस बार भी किया है। दूसरी ओर देवेंद्र फडणवीस न सिर्फ भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं, बल्कि इस समय महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री भी हैं। यहां तक कि गृहमंत्री भी वही हैं। उनकी जिम्मेदारी है राज्य की कानून व्यवस्था ठीक रखना। साथ ही, महाराष्ट्र के सभी चुनावों में अपनी पार्टी को जीत के लक्ष्य तक पहुंचाना भी उनकी जिम्मेदारी है। शायद इसीलिए उन्होंने ‘औरंगजेब की औलादें’ वाला अपना बयान चार अलग-अलग स्थानों पर जस का तस दोहराया। यानी दोनों पक्ष अपने-अपने संदेश आम जनता, या यूं कहें कि अपने-अपने मतदाताओं तक पहुंचाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। इसी कड़ी में यह भी देखा जाना चाहिए कि महाराष्ट्र में शिंदे-फडणवीस की सरकार आने के बाद से छत्रपति संभाजी महाराज नगर (पहले का औरंगाबाद), अमरावती, अकोला, अहमदनगर, मुंबई और कोल्हापुर में अलग-अलग अवसरों पर सांप्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश की जाती रही है। कभी अमरावती में ‘सर तन से जुदा’ के बहाने एक दवा व्यापारी का गला रेता जाता है, तो कभी अनेक शहरों में रामनवमी के जुलूस पर पथराव किया जाता है, तो कभी अचानक कोई एक समूह त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के सामने पहुंचकर उन्हें धूप दिखाने लगता है।
ये सारे प्रयास अनायास नहीं हो रहे हैं। प्रयास किया जा रहा है अलग-अलग वर्गों के मतदाताओं को थोक में एक ओर लाने का। महाराष्ट्र में एक समय शिवसेना ही हिंदुत्व की झंडाबरदार मानी जाती थी। तभी श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान इस पार्टी के संस्थापक बालासाहब ठाकरे को उनके तीखे हिंदुत्ववादी बयानों के कारण ‘हिंदूहृदय सम्राट’ कहा जाने लगा। वह भगवा वस्त्र पहनकर और हाथों में रुद्राक्ष की माला लपेटकर अपनी इस छवि को और पुष्ट करते ही दिखाई देते थे। राजनीति में इसका उन्हें भरपूर लाभ भी मिला। 1985 के बाद भारतीय जनता पार्टी भी उनके साथ उनकी इसी विचारधारा के कारण जुड़ी। क्योंकि दोनों पार्टियां अपने आपको समविचार वाला मानती थीं। लेकिन 2019 में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक बाद स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। शिवसेना ने अपनी 25 साल पुरानी साथी भाजपा का साथ छोड़ सत्ता के लिए उसी कांग्रेस और राकांपा से हाथ मिला लिया, जिसे बालासाहब ठाकरे फूटी आंख भी देखना पसंद नहीं करते थे। इस बदलाव को देख भाजपा हक्का-बक्का थी। कुछ दिन तक को उसे समझ में ही नहीं आया कि ये क्या हो गया ? 2020 में कोविड के दौरान पालघर में दो साधुओं की हत्या के बाद भाजपा ने शिवसेना को हिंदुत्व के मुद्दे पर घेरना शुरू किया। पिछले वर्ष 2022 में शिवसेना में हुई बड़ी बगावत के बाद तो इस मुद्दे को और रंग दिया जाने लगा। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना खुलकर उद्धव ठाकरे पर हिंदुत्व विरोधी होने का आरोप लगाने लगी और कांग्रेस-राकांपा की बैसाखी पर चल रहे उद्धव ठाकरे को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। अब शिंदे और भाजपा हिंदुत्व के मुद्दे पर उद्धव को घेरने का प्रयास कर रहे हैं, और उद्धव घिरते भी जा रहे हैं। जहां बालासाहब ठाकरे की सभाओं में भगवा झंडा लेकर मराठी हिंदू युवकों का जनसागर उमड़ पड़ता था, वहीं अब उद्धव मालेगांव, औरंगाबाद एवं मुंबई के मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपना भविष्य तलाशते दीख रहे हैं।
भाजपा के विरोध में मुस्लिम भी उद्धव ठाकरे की ओर आकर्षित हो रहे हैं। जाहिर है, इससे राजनीतिक समीकरण बदलेंगे। महाराष्ट्र में अब तक मुस्लिम और दलित मतदाताओं पर कांग्रेस का एकाधिकार माना जाता रहा है। यदि भाजपा को हराने के लिए मुस्लिमवर्ग ने मुंबईमहानगरपालिका सहित अन्य निकाय चुनावों एवं लोकसभा व विधानसभा में शिवसेना के साथ जाने का फैसला किया तो इसका सीधा नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ेगा। यानी औरंगजेब प्रकरण का सीधा लाभ शिवसेना उद्धव गुट को मिलेगा और नुकसान होगा कांग्रेस को। दूसरी ओर कांग्रेस-राकांपा विरोधी हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण तो भाजपा एवं मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के पक्ष में होगा ही। खासतौर से तब, जब उन्हें ये अहसास होगा कि मुस्लिम मतदाता खुलकर उद्धव की शिवसेना के साथ जाते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन महाराष्ट्र में औरंगजेब का मुद्दा ऐसी हड्डी है, जो शिवसेना (उद्धव गुट), राकांपा और कांग्रेस सभी के गले में अटकी दिख रही है। यही कारण है कि कोल्हापुर में औरंगजेब और टीपू सुल्तान के गुणगान वाला वाट्सएप्प चैट जारी होने के बाद संजय राउत और अजीत पवार को भी कहना पड़ा कि महाराष्ट्र में औरंगजेब के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन कांग्रेस चुप है। वह पक्ष में बोले तो भी नुकसान है, और विरोध में बोले तो भी।
÷लेखक दैनिक जागरण महाराष्ट्र के ब्यूरो इन चीफ हैं÷
लेख साभार दैनिक जागरण